गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र और धर्मश्रवण दुर्लभ है

क्यों न गर्व करें, इस देवरमणभूमि पर जिस के कण कण में अहिंसा व्याप्त है,जहां आकर हिंसाप्रधान संस्कृतियाँ भी स्वयं में दया,करूणा व शांति खोज खोज कर उद्धत करने लगती है।जिस धरा पर कितने भी कुसास्कृतिक आक्रमण हुए पर वह अपनी अहिंसा रूपी जडों से सिंचित होकर पुनः पल्लवित होते हुए, गुणों को उपार्जित कर समृद्ध बन जाती है।
क्यों न गर्व करें, इस आर्यभूमि में प्रकटे धर्मों पर, जिनका यहाँ प्रवर्तन हुआ और सहज पल्ल्वित हुए। वे कल भी सुमार्ग दर्शक थे और आज भी अपनी दिव्य उर्जा से सुमार्ग प्रकाशित बन, मानव को इस दुनिया का श्रेष्ठ, सभ्य और सत्कर्मी मनुष्य बनाए हुए है।
क्यों न गर्व करें, उन धर्म-शास्त्रों पर, जिनमें आज भी जगत के सर्वश्रेष्ठ सद्गुण निष्पन्न करने की शाक्ति है। वे आज भी मानव को सभ्य सुसंस्कृत बनाने का सामर्थ्य रखते है। जो प्रकृति के सद्भावपूर्ण उपयोग का मार्गदर्शन करते है,जो मात्र मानव के हित ही नहिं बल्कि समस्त जगत की जीवसृष्टि के अनुकूल जीवन-दर्शन को प्रकाशित करते है।
क्यों न गर्व करें, उन सुधारक महापुरूषों पर, जिनकी प्रखर विचारधारा व सत्यपरख नें समय समय धर्म, समाज और संस्कृति में घुस आई विकृतियों को दूर करने के प्रयास किये। कुरितियां दर्शा कर उन्हे दूर कर, धर्म का जीर्णोद्धार करके, हमारे ज्ञान, दर्शन व आचरण को शुद्ध करते रहे।
सत्य धर्म सदैव हमें सद्गुण सुसंस्कार और सभ्य-जीवन की प्रेरणा देते रहे हैं। असंयम (बुराईयों) के प्रति हमारे अंतरमन में अरूचि अरति पैदा करते रहे हैं। आज हम जो भी सभ्य होने का श्रेय ले रहे है, इन्ही सद्विचारों की देन है। धर्म के प्रति मै तो सदैव कृतज्ञ रहुंगा।

उतरोत्तर, मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र और धर्मश्रवण दुर्लभ है, मै तो कृतज्ञ हूँ, आप………?

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

भोगवाद, प्रकृति के संग अहसान फरामोशी

तेरे जीवन निर्वाह के लिये, तेरी आवश्यकता से भी अधिक संसाधन तुझे प्रकृति ने दिए, और तुने उसका अनियंत्रित अनवरत दोहन व शोषण आरंभ कर दिया। तुझे प्रकृति ने धरा का मुखिया बनाया, तुने अन्य सदस्यों के मुंह का निवाला भी छीन लिया। तेरी सहायता के लिये प्राणी बने, तुने उन्हे पेट का खड्डा भरने का साधन बनाया। सवाल पेट का होता तो जननी इतनी दुखी न होती। पर स्वाद की खातिर, इतना भ्रष्ट हुआ कि अखिल प्रकृति पाकर भी तूं, धृष्टता से भूख और अभाव के बहाने बनाता रहा। तेरे पेट की तृष्णा तो कदाचित शान्त हो जाय, पर तेरी बेलगाम इच्छाओं की तृष्णा कभी शान्त न हुई, कृतघ्न मानव।

जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत नहिं। लौटाना क्या, संयत उपयोग की भी तेरी कामना न बनी। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दिया। तूं अपनी संतान को माँ प्रकृति के संरक्षण में नियुक्त करता,अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग का ज्ञान देता। निर्लज्ज!!, इसी तरह संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी न पेट भरा तो, खोद तरल तेल भी लूटा।

तूने तो प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे उजाड ही कर दिया। हे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो फ़िर भी ममतामयी माँ ही है, उससे तो तेरा कोई दुख देखा नहिं जाता। उसकी यह चिंता रहती है, मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को तकलीफ न हो। वह ईशारे दे दे कर संयम का संदेश दे रही है। पर तूं भोगलिप्त भूखा जानकर भी अज्ञानी ही बना रहा। कर्ज़ मुक्त होने की तेरी कभी भी नीयत न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!!

रविवार, 19 दिसंबर 2010

विश्वास का द्वंद्व

यात्री पैदल रवाना हुआ, अंधेरी रात का समय, हाथ में एक छोटी सी टॉर्च। मन में विकल्प उठा, मुझे पांच मील जाना है,और इस टॉर्च की रोशनी तो मात्र पांच छः फ़ुट ही पडती है। दूरी पांच मील लम्बी और प्रकाश की दूरी-सीमा अतिन्यून। कैसे जा पाऊंगा? न तो पूरा मार्ग ही प्रकाशमान हो रहा है न गंतव्य ही नजर आ रहा है। वह तर्क से विचलित हुआ, और पुनः घर में लौट आया। पिता ने पुछा क्यों लौट आये? उसने अपने तर्क दिए - "मैं मार्ग ही पूरा नहिं देख पा रहा, मात्र छः फ़ुट प्रकाश के साधन से पांच मील यात्रा कैसे सम्भव है। बिना स्थल को देखे कैसे निर्धारित करूँ गंतव्य का अस्तित्व है या नहिं।" पिता ने सर पीट लिया……

अल्प ज्ञान के प्रकाश में हमारे तर्क भी अल्पज्ञ होते है, वे अनंत ज्ञान को प्रकाशमान नहिं कर सकते। यदि हमारी दृष्टि ही सीमित है तो तत्व का अस्तित्व होते हुए भी हम देख नहिं पाते।

आजीविका गुणधर्म मुक्तक

आजीविका कर्म भी धर्म-प्रेरित चरित्र युक्त करना चाहिए।
जीवन निर्वाह के साथ साथ जीवन निर्माण भी करना चाहिए।
परिवार का निर्वाह गृहस्वामी बनकर नहिं बल्कि गृहन्यासी (ट्रस्टी) बनकर निस्पृह भाव से करना चाहिए।
सत्कर्म से प्रतिष्ठा अर्जित करें व सद्चरित्र से विश्वस्त बनें।
कथनी व करनी में समन्वय करें।
कदैया (परदोषदर्शी) नहिं, सदैया (परगुणदर्शी) बने।
सद्गुण अपनानें में स्वार्थी बनें, आपका चरित्र स्वतः परोपकारी बन जायेगा।
इन्द्रिय विषयों व भावनात्मक आवेगों में संयम बरतें।
उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव रखें।
भोग-उपभोग को मर्यादित करके, संतोष चिंतन में उतरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए।
आय से अधिक खर्च करने वाला अन्ततः पछताता है।
कर्ज़ लेकर दिखावा करना, शान्ती बेच कर संताप खरीदना है।
प्रत्येक कार्य में लाभ हानि का विचार अवश्य करना चाहिए, फिर चाहे कार्य ‘वचन व्यवहार’ मात्र ही क्यों न हो।
आजीविका-कार्य में जो साधारण सा झूठ व साधारण सा रोष विवशता से प्रयोग करना पडे, पश्चाताप चिंतन कर लेना चाहिए।
राज्य विधान विरुद्ध कार्य (करचोरी, भ्रष्टाचार आदि) नहिं करना चाहिए। त्रृटिवश हो जाय तब भी ग्लानी भाव महसुस करना चाहिए।

धर्म का प्रभाव

एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहिं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहिं करोगे तब तक दिल्ली नहिं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहिं चलेंगे, उस और गति नहिं करेंगे, धर्म पा नहिं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहिं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहिं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहिं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहिं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहिं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहिं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहिं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।

मोहबंधन

एक दार्शनिक जा रहा था। साथ में मित्र था। सामने से एक गाय आ रही थी, रस्सी गाय के बंधी हुई और गाय मालिक रस्सी थामे हुए। दार्शनिक ने देखा, साक्षात्कार किया और मित्र से प्रश्न किया- “बताओ ! गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है?” मित्र नें तत्काल उत्तर दिया “यह तो सीधी सी बात है, गाय को आदमी पकडे हुए है, अतः गाय ही आदमी से बंधी हुई है।
दार्शनिक बोला- यदि यह गाय रस्सी छुडाकर भाग जाए तो आदमी क्या करेगा? मित्र नें कहा- गाय को पकडने के लिये उसके पीछे दौडेगा। तब दार्शनिक ने पूछा- इस स्थिति में बताओ गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है? आदमी भाग जाए तो गाय उसके पीछे नहिं दौडेगी। जबकि गाय भागेगी तो आदमी अवश्य उसके पीछे अवश्य दौडेगा। तो बंधा हुआ कौन है? आदमी या गाय। वस्तुतः आदमी ही गाय के मोहपाश में बंधा है।
व्यवहार और चिंतन में यही भेद है।
मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो भ्रम व यथार्थ में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।

दरिद्र

आस्था दरिद्र : जो सत्य पर भी कभी आस्थावान नहिं होता।
त्याग दरिद्र : समर्थ होते हुए भी, जिससे कुछ नहिं छूटता।
दया दरिद्र : प्राणियों पर लेशमात्र भी अनुकम्पा नहिं करता।
संतोष दरिद्र : आवश्यकता पूर्ण होनें के बाद भी इच्छा तृप्त नहिं होती।
वचन दरिद्र : जिव्हा पर कभी भी मधुर वचन नहिं होते।
मनुज दरिद्र : मानव बनकर भी जो पशुतुल्य तृष्णाओं से मुक्त नहिं हो पाता।
धन दरिद्र : जिसके पास न्यून भी धन नहिं होता।

अहंकार के सु्ख़ दुख़

बचपन में एक चुटकला सुना था, लोग रेल यात्रा कर रहे थे। एक व्यक्ति खडा हुआ और खिडकी खोलदी, थोडी ही देरमें दूसरा उठा और उसने खिडकी बंद कर दी। पहले को यह बंद करना नागवार गुजरा और उठ कर पुनः खोलदी।एक बंद करता दूसरा खोल देता। नाटक शुरु हो गया। यात्रियों का मनोरंजन हो रहा था लेकिन अंततः सभी तंग आगये। टी टी को बुलाया गया, टी टी ने पुछा, महाशय ! यह क्या कर रहे हो? क्यों बार बार खोल-बंद कर रहे हो? पहला यात्री बोला क्यों न खोलूं मैं गर्मी से परेशान हूं खिडकी खुली ही रहनी चाहिए। टी टी ने दूसरे यात्री को कहा भाई आपको क्या आपत्ति है, अगर खिडकी खुली रहे। उस दूसरे यात्री ने कहा मुझे ठंड लग रही है, मुझे ठंड सहन नहिं होती। टी टी बिचारा परेशान, एक को गर्मी लग रही है तो दूसरे को ठंड। टी टी यह सोचकर खिडकी के पास गयाकि कोई मध्यमार्ग निकल आए,उसने देखा और मुस्करा दिया। खिडकी में शीशा ही नहिं था। मात्र फ़्रेम थी। वहबोला कैसी गर्मी या कैसी ठंडी? यहां तो शीशा ही गायब है, आप दोनो तो मात्र फ़्रेम को ही उपर नीचे कर रहे हो। दोनोंयात्री न तो गर्मी और न ही ठंडी से परेशान नहिं थे। बल्कि वे परेशान थे तो मात्र अपने अहंकार से।
अधिकाँश कलह इसलिये होते है कि अहंकार को चोट पहुँचती है। आदमी को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचानेमें आता है और सबसे ज्यादा क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है। जो दूसरो के अहंकार को चोट पहुँचानेमें सफ़ल होता है वह मान लेता है वह कुछ विशेष बन गया है। अधिकांश लडाइयों के पिछे कारण एक छोटा सा अहं ही होता है।

प्रदर्शन ही पाखंड

समता, सज्जनता, सदाचार, सुविज्ञता और सम्पन्नता। निश्चित ही यह उत्तम गुण है, बस इनका प्रदर्शन हीपाखंड है। ऐसे पाखण्ड वस्तुत: व्यक्तिगत दोष है, पर बदनाम धर्म को किया जाता है। मात्र इसलिये कि इनगुणों की शिक्षा धर्म देता है।

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

घर

  • प्रेम और विश्वास ही घर की नींव है।
  • स्वावलम्बन ही घर के स्तम्भ है।
  • अनुशासन मर्यादा ही घर की बाड है।
  • समर्पण घर की सुरक्षा दीवारें है।
  • परस्पर सम्मान ही घर की छत है।
  • अप्रमाद ही घर का आंगन है।
  • सद्चरित्र ही घर का आराधना कक्ष है।
  • सेवा सहयोग ही घर के गलियारे है।
  • प्रोत्साहन ही घर की सीढियां है।
  • विनय विवेक घर के झरोखे है।
  • प्रमुदित सत्कार ही घर का मुख्यद्वार है।
  • सुव्यवस्था ही घर की शोभा है।
  • कार्यकुशलता ही घर की सज्जा है।
  • संतुष्ट नारी ही घर की लक्ष्मी है।
  • जिम्मेदार पुरुष ही घर का छत्र है।
  • समाधान ही घर का सुख है।
  • आतिथ्य ही घर का वैभव है।
  • हित-मित वार्ता ही घर का रंजन है।

द्वेष रूपी गांठ

द्वेष रूपी गांठ बांधने वाले, जीवन भर क्रोध की गठरी सिर पर उठाए घुमते है। यदि द्वेष की गांठे न बांधी होती तो क्रोध की गठरी खुलकर बिखर जाती, और सिर भार-मुक्त हो जाता।

व्यर्थ वाद विवाद

बौधिक उलझे तर्क में, कर कर वाद विवाद।

धर्म तत्व जाने नहिं, करे समय बर्बाद॥1


सद्भाग्य को स्वश्रम कहे, दुर्भाग्य पर विवाद

कर्मफ़ल जाने नहिं, व्यर्थ तर्क सम्वाद 2


कल तक जो बोते रहे, काट रहे है लोग

कर्मों के अनुरूप ही, भुगत रहे हैं भोग 3


कर्मों के मत पुछ रे, कैसे कैसे योग

भ्रांति कि हम भोग रहे, पर हमें भोगते भोग 4


ज्ञान बिना सब विफ़ल है, तन मन वाणी योग।

ज्ञान सहित आराधना, अक्षय सुख संयोग॥5

शृंगार

सिर का शृंगार तभी है, जब सत्य समक्ष नतमस्तक हो।

भाल का शृंगार तभी है, जब यश दीन दुखी के मुख हो॥

नयनों का शृंगार तभी है, जब वह करूणा से सज़ल हो।

नाक का शृंगार तभी है, जब वह परोपकार से उत्तंग हो॥

कान का शृंगार तभी है, जब वह आलोचना सुश्रुत हो।

होठो का शृंगार तभी है, हिले तो मधूर वचन प्रकट हो॥

गले का शृंगार तभी है, जब विनय पूर्ण नम जाय।

सीने का शृंगार तभी है, जिसमें आत्मगौरव बस जाय॥

हाथों का शृंगार तभी है, पीडित सहायता में बढ जाए।

हथेली का शृंगार तभी है, मिलन पर प्रेम को पढ जाए॥

कमर का शृंगार तभी है, जब बल मर्यादा से खाए।

पैरों का शृंगार तभी है, तत्क्षण मदद में उठ जाए॥

भोग

हानि न विष से हो सकी, जब तक किया न पान ।
पर क्रोध के उदय मात्र से, भ्रष्ट हो गया ज्ञान ॥1॥



सुलग रहा संसार यह, जैसे वन की आग ।
फ़िर भी मनुज लगा रहा?, इच्छओं के बाग ॥2॥



साझा-निधि जग मानकर, यथा योग्य ही भोग ।
परिग्रह परिमाण कर, जीवन एक सुयोग ॥3॥

सत्य-क्षमा

चलिये चल कर देखिये, सच का दामन थाम ।
साहस का यह काम है, किन्तु सुखद परिणाम ॥1॥



धर्म तत्व में मूढता, संसार तर्क में शूर ।
दुखदायक कारकों पर!, गारव और गरूर? ॥2॥



क्षमा भाव वरदान है, वैर भाव ही शाप ।
परोपकार बस पुण्य है, पर पीडन ही पाप ॥3॥

सुख़-दुःख़

दुख के दिनों की दीनता, सुख के दिनों का दंभ ।
मानवता की मौत सम, तुच्छ बोध प्रारंभ ॥1॥


कर्म शत्रु संघर्ष से, जगे सुप्त सौभाग ।
दुख में दर्द लुप्त रहे, सुख में जगे विराग ॥2॥



दरिद्रता में दयावान बन, वैभव में विनयवान ।
सतवचनों पर श्रद्धावान बन, पुरूषार्थ चढे परवान ॥3॥

उपकार

आत्म प्रशंसा में जुटे, दिखते है सब लोग ।
अपने सुख के वास्ते, ये बांट रहे हैं रोग ॥1॥



पर उपकार तूं किहा करे, कर अपनो उपकार ।
अहम घटे समता बढे, देह धरे का सार ॥2॥



तन की आंखें बंद कर, मन की आंखें खोल ।
मुख से बाते तब कर, जब ले उसको तोल ॥3॥

संतोष

मनुज जोश बेकार है, अगर संग नहिं होश ।
मात्र कोष से लाभ क्या, अगर नहिं संतोष ॥1॥
दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान ।
कहु न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥2॥

धन संचय यदि लक्ष्य है, यश मिलना अति दूर।
यश - कामी को चाहिये, त्याग शक्ति भरपूर ॥3॥

क्षमा

  • प्रतिशोध लेने का आनंद मात्र एक दिन का होता है, जबकि क्षमा करने का गौरव सदा बना रहता है।
  • सच्ची क्षमा समस्त ग्रंथियों को विदीर्ण करने का सामर्थ्य रखती है।
  • हर परिस्थिति में स्वयं को संयोजित संतुलित रखना भी क्षमा ही है।
  • क्षमा देने क्षमा प्राप्त करने का सामर्थ्य उसी में है जो आत्म निरिक्षण कर सकता है
  • क्षमापना आत्म शुद्धि का प्रवाहमान अनुष्ठान है, सौम्यता, विनयसरलता, नम्रता शुद्ध आत्म में स्थापित होतीहै।

सवेरा

उठ जाग रे मुसाफ़िर, अब हो गया सवेरा।
पल पलक खोल प्यारे, अब मिट गया अंधेरा॥ उठ जाग……


प्राची में पो फ़टी है, पर फडफडाए पंछी।
चह चहचहा रहे है, निशि भर यहाँ बसेरा॥ उठ जाग……


लाली लिए खडी है, उषा तुझे जगाने।
सृष्टी सज़ी क्षणिक सी, अब उठने को है डेरा॥ उठ जाग……


वे उड चले विहंग गण, निज लक्ष साधना से।
आंखों में क्यूं ये तेरी, देती है नींद घेरा॥ उठ जाग……


साथी चले गये है, तूं सो रहा अभी भी।
झट चेत चेत चेतन, प्रमाद बना लूटेरा॥ उठ जाग……


सूरज चढा है साधक, प्रतिबोध दे रहा है।
पाथेय बांध संबल, गंतव्य दूर तेरा॥ उठ जाग……

लक्ष्य है उँचा हमारा

लक्ष्य है उँचा हमारा, हम विजय के गीत गाएँ।
चीर कर कठिनाईयों को, दीप बन हम जगमगाएं॥


तेज सूरज सा लिए हम, ,शुभ्रता शशि सी लिए हम।
पवन सा गति वेग लेकर, चरण यह आगे बढाएँ॥


हम न रूकना जानते है, हम न झुकना जानते है।
हो प्रबल संकल्प ऐसा, आपदाएँ सर झुकाएँ॥


हम अभय निर्मल निरामय, हैं अटल जैसे हिमालय।
हर कठिन जीवन घडी में फ़ूल बन हम मुस्कराएँ॥


हे प्रभु पा धर्म तेरा, हो गया अब नव सवेरा।
प्राण का भी अर्ध्य देकर, मृत्यु से अमरत्व पाएँ॥

सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

हाथोंहाथ तूं दुख खरीद के, सुख सारे ही खोता।
कर्ज़, फ़र्ज और मर्ज़ बहाने, जीवन बोझा ढोता।
ढोते ढोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

जन्म लेते ही इस धरती पर, तुने रूदन मचाया।
आंख अभी तो खुल ना पाई, भूख भूख चिल्लाया॥
खाते खाते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

बचपन खोया खेल कूद में, योवन पा गुर्राया।
धर्म-कर्म का मर्म न जाने, विषय-भोग मन भाया।
भोगों भोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

शाम पडे रोज रे बंदे, पाप-पंक नहिं धोता।
चिंता जब असह्य बने तो, चद्दर तान के सोता।
सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

धीरे धीरे आया बुढापा, डगमग डोले काया।
सब के सब रोगों ने देखो, डेरा खूब जमाया।
रोगों रोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

खानदान

खाते है जहाँ गम सभी, नहिं जहाँ पर क्लेश।
निर्मल गंगा बह रही, प्रेम की जहाँ विशेष॥

हिं व्यसन-वृति कोई, खान-पान विवेक।
सोए-जागे समय पर, करे कमाई नेक॥

दाता जिस घर में सभी, निंदक नहिं नर-नार।
अतिथि का आदर करे, सात्विक सद्व्यवहार॥

मन गुणीजनों को करे, दुखीजन के दुख दूर।
स्वावलम्बन समृद्धि धरे, हर्षित रहे भरपूर॥

कसाई


बकरकसाई: बकरे आदि जीवहिंसा करने वाला।
तकरकसाई: खोटा माप-तोल करने वाला।
लकरकसाई: वृक्ष वन आदि काटने वाला।
कलमकसाई: लेखन से अन्य को पीडा पहूँचाने वाला।
क्रोधकसाई: द्वेष, क्रोध से दूसरों को दुखित करने वाला।
अहंकसाई: अहंकार से दूसरो को हेय,तुच्छ समझने वाला।
मायाकसाई: ठगी व कपट से अन्याय करने वाला।
लोभकसाई: स्वार्थवश लालच करने वाला।

पंच समवाय

कारणवाद (पंच समवाय)
किसी भी कार्य के पिछे कारण होता है, कारण के बिना कोई भी कार्य नहिं होता। जगत में हर घटना हर कार्य के निम्न पांच कारण ही आधारभुत होते है।
1-काल (समय)
2-स्वभाव (प्रकृति)
3-नियति (होनहार)
4-कर्म (कर्म सत्ता)
5-पुरुषार्थ (उद्यम)
इन पांच करणो में से किसी एक को ही अथवा किसी एक का भी निषेध मानने से विभिन्न मत-मतांतर होते है।
कालवादी: कालवादी का मंतव्य होता है,जगत में जो भी कार्य होता है वह सब काल के कारण ही होता है, काल ही प्रधान है। समय ही बलवान है। सब काल के अधीन है,सभी कार्य समय आने पर ही सम्पन्न होते है।इसलिये काल (समय) ही एक मात्र कारण है।
स्वभाववादी: स्वभाववादी का यह मंतव्य होता है कि सभी कार्य वस्तु के स्वभाव से घटित होते है, प्रत्येक पदार्थ के अपने गुण-धर्म होते है, उनका इसी तरह होना वस्तु का स्वभाव है। अतः स्वभाव ही एक मात्र कारण है।
नियतिवादी: नियतिवादी प्रत्येक कार्य को प्रारब्ध से होना मानता है, उसका मंतव्य होता है कि होनहार ही बलवान है। सारे कार्य भवितव्यता से ही सम्भव होते है।
कर्मवादी: कर्मवादी कर्मसत्ता में ही मानता है। ‘यथा कर्म तथा फलम्’ कर्म ही शक्तिशाली है, समस्त जग कर्म-चक्र के सहारे प्रवर्तमान है। अतः कर्म ही एक मात्र कारण है।
पुरुषार्थवादी : उध्यमवादी का मंतव्य होता है,प्रत्येक कार्य स्वप्रयत्न व श्रम से ही साकार होते है, पुरुषार्थ से कार्य होना स्वयं सिद्ध है, पुरुषार्थ से सभी कार्य सम्भव है अतः पुरुषार्थ ही एक मात्र कारण है।
किसी भी कार्य के कारण रूप में से किसी एक,दो यावत् चार को ग्रहण करने अथवा किसी एक का निषेध पर कथन असत्य ठहरता है।
उदाहरण:
एक व्यक्ति ने अपने बगीचे में आम का वृक्ष उगाया,जब उस पर आम लग गये तो, अपने पांच मित्रो को मीठे स्वादिष्ट फ़ल खाने के लिये आमंत्रित किया। सभी फलों का रसास्वादन करते हुए चर्चा करने लगे। वे पांचो अलग अलग मतवादी थे।
चर्चा करते हुए प्रथम कालवादी ने कहा, आज जो हम इन मीठे फ़लों का आनंद ले रहे है वह समय के कारण ही सम्भव हुआ। जब समय हुआ पेड बना, काल पर ही आम लगे और पके, समय ही कारण है,हमे परिपक्व आम उपलब्ध हुए।
तभी स्वभाववादी बोला, काल इसका कारण नहिं है, जो भी हुआ स्वभाव से हुआ। गुटली का गुणधर्म था आम का पेड बनना,पेड का स्वभाव था उस पर आम लगना,स्वभाव से ही उसमें मधुर रस उत्पन्न हुआ।स्वभाव ही मात्र कारण है
नियतिवादी दोनों की बात काटते हुए बोला, न तो काल ही इसका कारण है न स्वभाव। कितना भी गुटली के उगने का स्वभाव हो और कितना भी काल व्यतित हो जाय, अगर गुटली के प्रारब्ध में उगना नहिं होता तो वह न उगती, वह सड भी सकती थी, किस्मत न होती तो पेड अकाल खत्म भी हो सकता था। आम पकना नियति थी सो पके। प्रारब्ध ही एक मात्र कारण है।
उसी समय कर्मवादी ने अपना मंतव्य रखते कहा, न काल,न स्वभाव, न नियति ही इसका कारण है, सभी कुछ कर्म-सत्ता के अधिन है। कर्मानुसार ही गुटली का उगना,पेड बनना,व फ़ल में परिवर्तित होना सम्भव हुआ। हमारे कर्म थे जिससे इन फ़लों का आहार हम कर रहे है, गुटली का वृक्ष रूप उत्पन्न होकर फ़ल देना कर्म-प्रबंध के कारण होते चले गये। अतः कर्म ही मात्र कारण है।
अब पुरूषार्थवादी की बारी थी, उध्यमवादी ने कहा, भाईयों हमारे इन बागानस्वामी ने सारी महनत की उसमें ये काल,स्वभाव,नियति और कर्म कहां से आ गये। इन्होनें श्रम से बोया,रखवाली की, खाद व सिंचाई की, सब इनके परिश्रम का ही फ़ल है। बिना श्रम के इन मीठे फ़लो का उत्पन्न होना सम्भव ही नहिं था। जो भी कार्य होता है वह पुरूषार्थ से ही होता है।
पांचो ही अपनी अपनी बात खींच रहे थे, सभी के पास अपने मत को सही सिद्ध करने के लिये पर्याप्त तर्क थे। बहस अनिर्णायक हो रही थी। तभी बागानस्वामी ने कहा मित्रों आप सभी अपनी अपनी बात पकड कर गलत, मिथ्या सिद्ध हो रहे हो, यदपि आप पांचो का अलग स्वतंत्र अभिप्राय मिथ्या है तथापि आप पांचो के मंतव्य सम्मलित रूप से सही है , इन पाँचों कारणो का समन्वय ही सत्य है, कारणभुत है।
पांचो कारणों के समन्वय से ही कार्य निष्पन्न होता है, बिना काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरूषार्थ के कोई कार्य सम्भव नहिं होता। किसी एक कारण का भी निषेध करने से कथन असत्य हो जाता है। हां यह हो सकता है कि किसी एक कारण की प्रमुखता हो और शेष कारण गौण, लेकिन सभी पांच कारणो का समन्वित अस्तित्व निश्चित ही है।

दूर कर अज्ञान, अन्तर ज्योति को जगाना है।

एक आतम भाव,एक आतम भाव हमको लोकालोक से प्यारा है।
ना मिले जड भाव, ना मिले जड भाव चेतन भाव तो हमारा है।
उसी से हर उजाला है, एक आतम भाव…

ज्ञानदर्शनमय, हमारी आत्मा है, उपयोग में झूलती है।
बंधनों को तोड, बंधनों को तोड हमें मोक्ष में ही जाना है।
उसी से हर उजाला है…

माया के चक्कर में, हम भान यूं भूले, तो दर्द यूं झेलते है।
कषायों को छोड, कषायों को छोड वितरागता को पाना है।
उसी से हर उजाला है…

राग बंधन है, वितराग मुक्ति है, तो संयम मोक्षमार्ग है।
दूर कर अज्ञान, दूर कर अज्ञान अन्तर ज्योति को जगाना है।
उसी से हर उजाला है…

सोमवार, 30 अगस्त 2010

प्रभु आयेंगे महावीर बनके।


कौन कहता है भगवान आते नहीं,
सम्यग् भाव तुम दिल में जगाते नहीं।
तुम गौतम बनो तो,तुम चंदना बनो तो,
प्रभु आयेंगे महावीर बनके।


सत्य कहने से कभी मत डरना,
पर विनय विवेक भी मत तज़ना।
तुम आनंद बनो तो, पूर्ण उपासक बनो तो,
गौतम आयेंगे क्षमाप्रार्थी बनके।


पश्च्याताप हृदय में जगाना,
पापभीरूता से पाप खपाना।
तुम अर्जुन बनो तो, सरल बोधी बनो तो,
प्रभु आयेंगे सुदर्शन बनके।


अनुकंपा से आत्म भरा हो,
जीवदया का व्रत खरा हो,
मेघरथ बनो तो, धर्मरूचि बनो तो,
प्रभु आयेंगे शांति-वीर बनके।


समता का ध्यान तुम लगाना,
क्षमावीर बन भय को भगाना।
तुम खंदक बनो तो, या मैतार्य बनो तो,
प्रभु आयेंगे महावीर बनके।

उँची राखै दुजांरी पाग, वा मण भर उँचौ मानवी॥

स्वहित-घरहित-कुलहित, एक सरीखो मांन।
पण जद आवै समाजहित, तज़ देवै अभिमान।
नहिं चा’वै वा किणरी लाग, भूंडा में नहिं राखै भाग।
चढता नें झट देवै मा’ग, वा मण भर उँचौ मानवी॥


सुणै वात सगळां री, नहिं आवेश उतावळ आणै।
लाख वार सोचे तोले, फ़िर ठावक़ बोलण जाणै।
मुँडे नहिं वै कड़वा फ़ाग, सर्वहित में रे’वै सज़ाग।
खिमताधर छाती रो वाग़, वा मण भर उँचौ मानवी॥


विद्वान-विरोधियां रे परत भी, मन में मान उपजावै।
कौण कठै कांई बोळ्यो, वा वात न डाढै घाळै।
झट देवै उणनै सौभाग, आंतरडै नहिं राखै दाग़ ।
उँची राखै दुजांरी पाग, वा मण भर उँचौ मानवी॥


न आँटी घूंटी और टँटौ, न रोष द्वैष मन मैलो।
सच्चाई नें देख पक्ष में, पडखौ फ़ेरे पहळौ।
समाज सूं राखै एहवो राग,माळी सरीखो पोखै बाग़ ।
रगडा नें नहिं देवै आग, वा मण भर उँचौ मानवी॥

क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में, अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।


कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।


क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।


मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।


दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।


खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।


मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं ॥

(यह राजस्थानी गीत, “मोरिया आछो बोळ्यो रे……” लय पर आधारित है।)

बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं।
थांरी कौडी नहिं लेवुं रे छदाम, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं ॥

बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां, बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां। बैठतां, बैठतां
अबै तो डेरा थांरा पोळियाँ रे मांय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां, बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां। पोढतां, पोढतां,
अबै तो फ़ाटो राळो ने टूटी खाट, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठतां, बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठता। बैठतां, बैठतां
अबै तो देहली भी डांगी नहिं जाय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां, बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां। ज़ीमतां, ज़ीमतां
अबै तो लूखा टूकडा ने खाटी छास, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां, बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां। बोलतां, बोलतां
अबै तो रोयां भी पूछे नहिं सार, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो, बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो। ना कियो, ना कियो
अबै तो होवै है गहरो पश्च्याताप, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

रचना शब्दकार -अज्ञात

रविवार, 1 अगस्त 2010

परमेष्ठी वंदन

सर्व प्रथम वंदन करूं, वितराग भगवान।

तीर्थंकर अर्हंत प्रभु,भवतारक जलयान॥




जिनवाणी पर आस्था, शमन करे भवताप।

स्मरण मनन जगे चेतना, हरे सभी सन्ताप॥



प्रभु आज्ञा में रमण करे, संत मुनि निर्ग्रंथ।

आर्षवचन उपदेश से, करे उपकार अंनत॥



बडे जतन से जीव का, जीवन दिया संवार।

भूल नहिं सकते कभी, परमेष्ठी उपकार॥





रविवार, 25 जुलाई 2010

निर्ग्रंथ प्रवचन

निर्ग्रंथ प्रवचन

सत्य यह निर्ग्रंथ प्रवचन, अनुत्तर लाज़वाब यह दर्शन ।
सर्वज्ञ केवली भाषित है यह, सर्वोत्तम शुद्धरूप प्ररुपन ॥

सभी तरह से है परिपूर्ण, न्यायसंगत और तर्कपूर्ण ।
शल्यों का निवारक है यह, प्रमाण अबाधित है सम्पूर्ण ॥

अविलम्ब सिद्धि दायक, निश्चित ही यह मुक्ति दायक ।
यही केवल निर्वाण पथ है, और सदा निर्याण सहायक ॥

जो जीव इसमें स्थिर रहते, सिद्ध अवस्था प्राप्त है करते ।
केवलज्ञानी बुद्ध होकर के, जन्म मरण से मुक्ति पाते ॥

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

जिनवाणी

सर्वोत्तम शुद्ध सर्वमंगला,
सुधर्म साधन सदवाणी।
विशल्य विशुद्ध विमला,
वीतराग विशद वाणी॥

पाप पंक प्रशम परुपित,
पावन प्राज्ञ प्रवाहिणी।
दुर्जय दारूण दुख दामिनी,
शाश्वत सुखदा कल्याणी॥

अद्वित्य अनुत्तर अनुपम,
आर्षवचन अमृत वाणी।
जय जिनवर जय तीर्थंकर जय,
धन्य धन्य हे जिनवाणी॥