मंगलवार, 16 नवंबर 2010

घर

  • प्रेम और विश्वास ही घर की नींव है।
  • स्वावलम्बन ही घर के स्तम्भ है।
  • अनुशासन मर्यादा ही घर की बाड है।
  • समर्पण घर की सुरक्षा दीवारें है।
  • परस्पर सम्मान ही घर की छत है।
  • अप्रमाद ही घर का आंगन है।
  • सद्चरित्र ही घर का आराधना कक्ष है।
  • सेवा सहयोग ही घर के गलियारे है।
  • प्रोत्साहन ही घर की सीढियां है।
  • विनय विवेक घर के झरोखे है।
  • प्रमुदित सत्कार ही घर का मुख्यद्वार है।
  • सुव्यवस्था ही घर की शोभा है।
  • कार्यकुशलता ही घर की सज्जा है।
  • संतुष्ट नारी ही घर की लक्ष्मी है।
  • जिम्मेदार पुरुष ही घर का छत्र है।
  • समाधान ही घर का सुख है।
  • आतिथ्य ही घर का वैभव है।
  • हित-मित वार्ता ही घर का रंजन है।

द्वेष रूपी गांठ

द्वेष रूपी गांठ बांधने वाले, जीवन भर क्रोध की गठरी सिर पर उठाए घुमते है। यदि द्वेष की गांठे न बांधी होती तो क्रोध की गठरी खुलकर बिखर जाती, और सिर भार-मुक्त हो जाता।

व्यर्थ वाद विवाद

बौधिक उलझे तर्क में, कर कर वाद विवाद।

धर्म तत्व जाने नहिं, करे समय बर्बाद॥1


सद्भाग्य को स्वश्रम कहे, दुर्भाग्य पर विवाद

कर्मफ़ल जाने नहिं, व्यर्थ तर्क सम्वाद 2


कल तक जो बोते रहे, काट रहे है लोग

कर्मों के अनुरूप ही, भुगत रहे हैं भोग 3


कर्मों के मत पुछ रे, कैसे कैसे योग

भ्रांति कि हम भोग रहे, पर हमें भोगते भोग 4


ज्ञान बिना सब विफ़ल है, तन मन वाणी योग।

ज्ञान सहित आराधना, अक्षय सुख संयोग॥5

शृंगार

सिर का शृंगार तभी है, जब सत्य समक्ष नतमस्तक हो।

भाल का शृंगार तभी है, जब यश दीन दुखी के मुख हो॥

नयनों का शृंगार तभी है, जब वह करूणा से सज़ल हो।

नाक का शृंगार तभी है, जब वह परोपकार से उत्तंग हो॥

कान का शृंगार तभी है, जब वह आलोचना सुश्रुत हो।

होठो का शृंगार तभी है, हिले तो मधूर वचन प्रकट हो॥

गले का शृंगार तभी है, जब विनय पूर्ण नम जाय।

सीने का शृंगार तभी है, जिसमें आत्मगौरव बस जाय॥

हाथों का शृंगार तभी है, पीडित सहायता में बढ जाए।

हथेली का शृंगार तभी है, मिलन पर प्रेम को पढ जाए॥

कमर का शृंगार तभी है, जब बल मर्यादा से खाए।

पैरों का शृंगार तभी है, तत्क्षण मदद में उठ जाए॥

भोग

हानि न विष से हो सकी, जब तक किया न पान ।
पर क्रोध के उदय मात्र से, भ्रष्ट हो गया ज्ञान ॥1॥



सुलग रहा संसार यह, जैसे वन की आग ।
फ़िर भी मनुज लगा रहा?, इच्छओं के बाग ॥2॥



साझा-निधि जग मानकर, यथा योग्य ही भोग ।
परिग्रह परिमाण कर, जीवन एक सुयोग ॥3॥

सत्य-क्षमा

चलिये चल कर देखिये, सच का दामन थाम ।
साहस का यह काम है, किन्तु सुखद परिणाम ॥1॥



धर्म तत्व में मूढता, संसार तर्क में शूर ।
दुखदायक कारकों पर!, गारव और गरूर? ॥2॥



क्षमा भाव वरदान है, वैर भाव ही शाप ।
परोपकार बस पुण्य है, पर पीडन ही पाप ॥3॥

सुख़-दुःख़

दुख के दिनों की दीनता, सुख के दिनों का दंभ ।
मानवता की मौत सम, तुच्छ बोध प्रारंभ ॥1॥


कर्म शत्रु संघर्ष से, जगे सुप्त सौभाग ।
दुख में दर्द लुप्त रहे, सुख में जगे विराग ॥2॥



दरिद्रता में दयावान बन, वैभव में विनयवान ।
सतवचनों पर श्रद्धावान बन, पुरूषार्थ चढे परवान ॥3॥

उपकार

आत्म प्रशंसा में जुटे, दिखते है सब लोग ।
अपने सुख के वास्ते, ये बांट रहे हैं रोग ॥1॥



पर उपकार तूं किहा करे, कर अपनो उपकार ।
अहम घटे समता बढे, देह धरे का सार ॥2॥



तन की आंखें बंद कर, मन की आंखें खोल ।
मुख से बाते तब कर, जब ले उसको तोल ॥3॥

संतोष

मनुज जोश बेकार है, अगर संग नहिं होश ।
मात्र कोष से लाभ क्या, अगर नहिं संतोष ॥1॥
दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान ।
कहु न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ॥2॥

धन संचय यदि लक्ष्य है, यश मिलना अति दूर।
यश - कामी को चाहिये, त्याग शक्ति भरपूर ॥3॥

क्षमा

  • प्रतिशोध लेने का आनंद मात्र एक दिन का होता है, जबकि क्षमा करने का गौरव सदा बना रहता है।
  • सच्ची क्षमा समस्त ग्रंथियों को विदीर्ण करने का सामर्थ्य रखती है।
  • हर परिस्थिति में स्वयं को संयोजित संतुलित रखना भी क्षमा ही है।
  • क्षमा देने क्षमा प्राप्त करने का सामर्थ्य उसी में है जो आत्म निरिक्षण कर सकता है
  • क्षमापना आत्म शुद्धि का प्रवाहमान अनुष्ठान है, सौम्यता, विनयसरलता, नम्रता शुद्ध आत्म में स्थापित होतीहै।

सवेरा

उठ जाग रे मुसाफ़िर, अब हो गया सवेरा।
पल पलक खोल प्यारे, अब मिट गया अंधेरा॥ उठ जाग……


प्राची में पो फ़टी है, पर फडफडाए पंछी।
चह चहचहा रहे है, निशि भर यहाँ बसेरा॥ उठ जाग……


लाली लिए खडी है, उषा तुझे जगाने।
सृष्टी सज़ी क्षणिक सी, अब उठने को है डेरा॥ उठ जाग……


वे उड चले विहंग गण, निज लक्ष साधना से।
आंखों में क्यूं ये तेरी, देती है नींद घेरा॥ उठ जाग……


साथी चले गये है, तूं सो रहा अभी भी।
झट चेत चेत चेतन, प्रमाद बना लूटेरा॥ उठ जाग……


सूरज चढा है साधक, प्रतिबोध दे रहा है।
पाथेय बांध संबल, गंतव्य दूर तेरा॥ उठ जाग……

लक्ष्य है उँचा हमारा

लक्ष्य है उँचा हमारा, हम विजय के गीत गाएँ।
चीर कर कठिनाईयों को, दीप बन हम जगमगाएं॥


तेज सूरज सा लिए हम, ,शुभ्रता शशि सी लिए हम।
पवन सा गति वेग लेकर, चरण यह आगे बढाएँ॥


हम न रूकना जानते है, हम न झुकना जानते है।
हो प्रबल संकल्प ऐसा, आपदाएँ सर झुकाएँ॥


हम अभय निर्मल निरामय, हैं अटल जैसे हिमालय।
हर कठिन जीवन घडी में फ़ूल बन हम मुस्कराएँ॥


हे प्रभु पा धर्म तेरा, हो गया अब नव सवेरा।
प्राण का भी अर्ध्य देकर, मृत्यु से अमरत्व पाएँ॥

सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

हाथोंहाथ तूं दुख खरीद के, सुख सारे ही खोता।
कर्ज़, फ़र्ज और मर्ज़ बहाने, जीवन बोझा ढोता।
ढोते ढोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

जन्म लेते ही इस धरती पर, तुने रूदन मचाया।
आंख अभी तो खुल ना पाई, भूख भूख चिल्लाया॥
खाते खाते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

बचपन खोया खेल कूद में, योवन पा गुर्राया।
धर्म-कर्म का मर्म न जाने, विषय-भोग मन भाया।
भोगों भोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

शाम पडे रोज रे बंदे, पाप-पंक नहिं धोता।
चिंता जब असह्य बने तो, चद्दर तान के सोता।
सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

धीरे धीरे आया बुढापा, डगमग डोले काया।
सब के सब रोगों ने देखो, डेरा खूब जमाया।
रोगों रोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

खानदान

खाते है जहाँ गम सभी, नहिं जहाँ पर क्लेश।
निर्मल गंगा बह रही, प्रेम की जहाँ विशेष॥

हिं व्यसन-वृति कोई, खान-पान विवेक।
सोए-जागे समय पर, करे कमाई नेक॥

दाता जिस घर में सभी, निंदक नहिं नर-नार।
अतिथि का आदर करे, सात्विक सद्व्यवहार॥

मन गुणीजनों को करे, दुखीजन के दुख दूर।
स्वावलम्बन समृद्धि धरे, हर्षित रहे भरपूर॥

कसाई


बकरकसाई: बकरे आदि जीवहिंसा करने वाला।
तकरकसाई: खोटा माप-तोल करने वाला।
लकरकसाई: वृक्ष वन आदि काटने वाला।
कलमकसाई: लेखन से अन्य को पीडा पहूँचाने वाला।
क्रोधकसाई: द्वेष, क्रोध से दूसरों को दुखित करने वाला।
अहंकसाई: अहंकार से दूसरो को हेय,तुच्छ समझने वाला।
मायाकसाई: ठगी व कपट से अन्याय करने वाला।
लोभकसाई: स्वार्थवश लालच करने वाला।

पंच समवाय

कारणवाद (पंच समवाय)
किसी भी कार्य के पिछे कारण होता है, कारण के बिना कोई भी कार्य नहिं होता। जगत में हर घटना हर कार्य के निम्न पांच कारण ही आधारभुत होते है।
1-काल (समय)
2-स्वभाव (प्रकृति)
3-नियति (होनहार)
4-कर्म (कर्म सत्ता)
5-पुरुषार्थ (उद्यम)
इन पांच करणो में से किसी एक को ही अथवा किसी एक का भी निषेध मानने से विभिन्न मत-मतांतर होते है।
कालवादी: कालवादी का मंतव्य होता है,जगत में जो भी कार्य होता है वह सब काल के कारण ही होता है, काल ही प्रधान है। समय ही बलवान है। सब काल के अधीन है,सभी कार्य समय आने पर ही सम्पन्न होते है।इसलिये काल (समय) ही एक मात्र कारण है।
स्वभाववादी: स्वभाववादी का यह मंतव्य होता है कि सभी कार्य वस्तु के स्वभाव से घटित होते है, प्रत्येक पदार्थ के अपने गुण-धर्म होते है, उनका इसी तरह होना वस्तु का स्वभाव है। अतः स्वभाव ही एक मात्र कारण है।
नियतिवादी: नियतिवादी प्रत्येक कार्य को प्रारब्ध से होना मानता है, उसका मंतव्य होता है कि होनहार ही बलवान है। सारे कार्य भवितव्यता से ही सम्भव होते है।
कर्मवादी: कर्मवादी कर्मसत्ता में ही मानता है। ‘यथा कर्म तथा फलम्’ कर्म ही शक्तिशाली है, समस्त जग कर्म-चक्र के सहारे प्रवर्तमान है। अतः कर्म ही एक मात्र कारण है।
पुरुषार्थवादी : उध्यमवादी का मंतव्य होता है,प्रत्येक कार्य स्वप्रयत्न व श्रम से ही साकार होते है, पुरुषार्थ से कार्य होना स्वयं सिद्ध है, पुरुषार्थ से सभी कार्य सम्भव है अतः पुरुषार्थ ही एक मात्र कारण है।
किसी भी कार्य के कारण रूप में से किसी एक,दो यावत् चार को ग्रहण करने अथवा किसी एक का निषेध पर कथन असत्य ठहरता है।
उदाहरण:
एक व्यक्ति ने अपने बगीचे में आम का वृक्ष उगाया,जब उस पर आम लग गये तो, अपने पांच मित्रो को मीठे स्वादिष्ट फ़ल खाने के लिये आमंत्रित किया। सभी फलों का रसास्वादन करते हुए चर्चा करने लगे। वे पांचो अलग अलग मतवादी थे।
चर्चा करते हुए प्रथम कालवादी ने कहा, आज जो हम इन मीठे फ़लों का आनंद ले रहे है वह समय के कारण ही सम्भव हुआ। जब समय हुआ पेड बना, काल पर ही आम लगे और पके, समय ही कारण है,हमे परिपक्व आम उपलब्ध हुए।
तभी स्वभाववादी बोला, काल इसका कारण नहिं है, जो भी हुआ स्वभाव से हुआ। गुटली का गुणधर्म था आम का पेड बनना,पेड का स्वभाव था उस पर आम लगना,स्वभाव से ही उसमें मधुर रस उत्पन्न हुआ।स्वभाव ही मात्र कारण है
नियतिवादी दोनों की बात काटते हुए बोला, न तो काल ही इसका कारण है न स्वभाव। कितना भी गुटली के उगने का स्वभाव हो और कितना भी काल व्यतित हो जाय, अगर गुटली के प्रारब्ध में उगना नहिं होता तो वह न उगती, वह सड भी सकती थी, किस्मत न होती तो पेड अकाल खत्म भी हो सकता था। आम पकना नियति थी सो पके। प्रारब्ध ही एक मात्र कारण है।
उसी समय कर्मवादी ने अपना मंतव्य रखते कहा, न काल,न स्वभाव, न नियति ही इसका कारण है, सभी कुछ कर्म-सत्ता के अधिन है। कर्मानुसार ही गुटली का उगना,पेड बनना,व फ़ल में परिवर्तित होना सम्भव हुआ। हमारे कर्म थे जिससे इन फ़लों का आहार हम कर रहे है, गुटली का वृक्ष रूप उत्पन्न होकर फ़ल देना कर्म-प्रबंध के कारण होते चले गये। अतः कर्म ही मात्र कारण है।
अब पुरूषार्थवादी की बारी थी, उध्यमवादी ने कहा, भाईयों हमारे इन बागानस्वामी ने सारी महनत की उसमें ये काल,स्वभाव,नियति और कर्म कहां से आ गये। इन्होनें श्रम से बोया,रखवाली की, खाद व सिंचाई की, सब इनके परिश्रम का ही फ़ल है। बिना श्रम के इन मीठे फ़लो का उत्पन्न होना सम्भव ही नहिं था। जो भी कार्य होता है वह पुरूषार्थ से ही होता है।
पांचो ही अपनी अपनी बात खींच रहे थे, सभी के पास अपने मत को सही सिद्ध करने के लिये पर्याप्त तर्क थे। बहस अनिर्णायक हो रही थी। तभी बागानस्वामी ने कहा मित्रों आप सभी अपनी अपनी बात पकड कर गलत, मिथ्या सिद्ध हो रहे हो, यदपि आप पांचो का अलग स्वतंत्र अभिप्राय मिथ्या है तथापि आप पांचो के मंतव्य सम्मलित रूप से सही है , इन पाँचों कारणो का समन्वय ही सत्य है, कारणभुत है।
पांचो कारणों के समन्वय से ही कार्य निष्पन्न होता है, बिना काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरूषार्थ के कोई कार्य सम्भव नहिं होता। किसी एक कारण का भी निषेध करने से कथन असत्य हो जाता है। हां यह हो सकता है कि किसी एक कारण की प्रमुखता हो और शेष कारण गौण, लेकिन सभी पांच कारणो का समन्वित अस्तित्व निश्चित ही है।

दूर कर अज्ञान, अन्तर ज्योति को जगाना है।

एक आतम भाव,एक आतम भाव हमको लोकालोक से प्यारा है।
ना मिले जड भाव, ना मिले जड भाव चेतन भाव तो हमारा है।
उसी से हर उजाला है, एक आतम भाव…

ज्ञानदर्शनमय, हमारी आत्मा है, उपयोग में झूलती है।
बंधनों को तोड, बंधनों को तोड हमें मोक्ष में ही जाना है।
उसी से हर उजाला है…

माया के चक्कर में, हम भान यूं भूले, तो दर्द यूं झेलते है।
कषायों को छोड, कषायों को छोड वितरागता को पाना है।
उसी से हर उजाला है…

राग बंधन है, वितराग मुक्ति है, तो संयम मोक्षमार्ग है।
दूर कर अज्ञान, दूर कर अज्ञान अन्तर ज्योति को जगाना है।
उसी से हर उजाला है…