शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

परम्परा और रूढ़ि में अन्तर



श्रुत के आधार पर किसी क्रिया-प्रणाली का यथारूप अनुगमन करना परम्परा कहलाता है। परम्परा के भी दो भेद है। पूर्व प्रचलित क्रिया-विधि के तर्क व्याख्या में न जाते हुए, उसके अभिप्रायः को समझ लेना। और उसके सप्रयोजन ज्ञात होने पर उसका अनुसरण करना, ‘सप्रयोजन परम्परा' कहलाती है। दूसरी, निष्प्रयोजन ही किसी विधि का, गतानुगति से अन्धानुकरण करना 'रूढ़ि' कहलाता है। आज हम ‘सप्रयोजन परम्परा’ के औचित्य पर विचार करेंगे।

मानव नें अपने सभ्यता विकास के अनवरत सफर में कईं सिद्धांतो का अन्वेषण-अनुसंधान किया और वस्तुस्थिति का निष्कर्ष स्थापित किया। उन्ही निष्कर्षों के आधार पर किसी न किसी सैद्धांतिक कार्य-विधि का प्रचलन अस्तित्व में आया। जिसे हम संस्कृति भी कहते है। ऐसी क्रिया-प्रणाली, प्रयोजन सिद्ध होने के कारण, हम इसे ‘सप्रयोजन परम्परा’ कह सकते है।

आज के आधुनिकवादी इसे भी रूढ़ि में खपाते है। यह पीढ़ी प्रत्येक सिद्धांत को तर्क के बाद ही स्वीकार करना चाहती है। हर निष्कर्ष को पुनः पुनः विश्लेषित करना चाहती है। यदि विश्लेषण सम्भव न हो तो, उसे अंधविश्वास में खपा देने में देर नहीं करती। परम्परा के औचित्य पर विचार करना इनका मक़सद ही नहीं होता।

ऐसे पारम्परिक सिद्धांत, वस्तुतः बारम्बार के अनुसंधान और हर बार की विस्तृत व्याख्या से बचने के लिए ही व्यवहार में आते है। समय और श्रम के अपव्यय को बचाने के उद्देश्य से ही स्थापित किए जाते है। जैसे- जगत में कुछ द्रव्य विषयुक्त है। विष मानव के प्राण हरने या रुग्ण करने में समर्थ है। यह तथ्य हमने, हमारे युगों युगों के अनुसंधान और असंख्य जानहानि के बाद स्थापित किया। आज हमारे लिए बेतर्क यह मानना  पर्याप्त है कि ‘विष मारक होता है’। यह अनुभवों का निचोड़ है। विषपान से बचने का 'उपक्रम' ही सप्रयोजन परम्परा है। ‘विष मारक होता है’ इस तथ्य को हम स्व-अनुभव की कसौटी पर नहीं चढ़ा सकते। और न ही  समाधान के लिए,प्रत्येक बार पुनः अनुसंधान किया जाना उचित होगा।

परम्परा का निर्वाह पूर्ण रूप से वैज्ञानिक अभिगम है। विज्ञ वैज्ञानिक भी सिद्धान्त इसलिए ही प्रतिपादित करते है कि एक ही सिद्धांत पर पुनः पुनः अनुसंधान की आवश्यकता न रहे।  उन निष्कर्षों को सिद्धांत रूप स्वीकार कर, आवश्यकता होने पर उन्ही सिद्धांतो के आधार पर उससे आगे के अनुसंधान सम्पन्न किए जा सके। जैसे- वैज्ञानिकों नें बरसों अनुसंधान के बाद यह प्रमाणित किया कि आणविक क्रिया से विकिरण होता है। और यह विकिरण जीवन पर बुरा प्रभाव करता है। जहां आणविक सक्रियता हो मानव को असुरक्षित उसके संसर्ग में नहीं जाना चाहिए। उन्होंने सुरक्षा की एक क्रिया-प्रणाली विकसित करके प्रस्तुत की। परमाणविक विकिरण, उसका दुष्प्रभाव, उससे सुरक्षा के उपाय सब वैज्ञानिक प्रतिस्थापना होती है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति बिना उस वैज्ञानिक से मिले, बिना स्वयं प्रयोग किए। मात्र पढ़े-सुने आधार पर सुरक्षा-उपाय अपना लेता है। यह सुरक्षा-उपाय का अनुसरण, परम्परा का पालन ही है। ऐसी अवस्था में मुझे नहीं लगता कोई भी समझदार, सुरक्षा उपाय पालने के पूर्व आणविक उत्सर्जन के दुष्प्रभाव को जाँचने का दुस्साहस करेगा।

बस इसीतरह प्राचीन ज्ञानियों नें मानव सभ्यता और आत्मिक विकास के उद्देश्य से सिद्धांत प्रतिपादित किए। और क्रिया-प्रणाली स्वरूप में वे निष्कर्ष हम तक पहुँचाए। हमारी अनुकूलता के लिए, बारम्बार के तर्क व अनुशीलन से मुक्त रखा।हमारे लिए उन सिद्धांतों से प्राप्य प्रतिलाभ का उपयोग कर लेना, सप्रयोजन परम्परा का निर्वाह है।

जीवन मूल्यों में विकास के सार्थक उद्देश्य से किसी योग्य कार्य-विधि का निर्वहन ‘सप्रयोजन परम्परा’ कहलाता है। जैसे- 'एकाग्रचित' चिन्तन के प्रयोजन से, 'ध्यान' परम्परा का पालन किया जाता है, इसे हम ‘सप्रयोजन परम्परा' कहेंगे। आज तो जीवन शैली के लिए, मेडिटेशन की उपयोगिता प्रमाणित हो गई है। इसी कारण इसका उदाहरण देना सरल सहज-बोध हो गया है्। अतः परम्परा का औचित्य सिद्ध करना आसान हो गया है। अन्यथा कईं उपयोगी परम्पराएं असिद्ध होने से अनुपयोगी प्रतीत होती है। कई मान्यताओं में प्रतिदिन एक मुहर्त पर्यन्त ध्यान करने की परम्परा है, एकाग्रचित्त अन्तर्मन्थन के लिए इससे अधिक उपयोगी कौनसी विधि हो सकती है। 

पहले कभी, प्रतिदिन प्रातः काल योग – आसन करनें की परम्परा थी। जिसे दुर्बोध तर्कवादियों नें सांसो की उठा-पटक और अंगो की तोड़-मरोड़ कहकर दुत्कार दिया था। वे सतही सोच बुद्धि से उसे रूढ़ि कहते थे। आज अच्छे स्वास्थ्य के लिए योगासनो को स्वीकार कर लिया गया है। मन को सकारात्मक संदेश प्रदान करने के लिए भजनों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। दया की भावना का विकास करने के लिए दान के उपक्रम का महत्व है। श्रद्धा और विश्वास को सफलता का मुख्य कारण माना जाने लगा है। कई लोगों को स्वीकार करते पाया है कि उन्हें धर्म-स्थलों में अपार शान्ति का अनुभव होता है। कई लोग भक्ति-भाव के अभ्यास से, अहंकार भाव में क्षरण अनुभव करते है। हम आस-पास के वातावरण के अनुसार ही व्यक्ति्त्व ढलता देखते है। इन सभी लक्षणों पर दृष्टि करें तो, परम्परा और संस्कार का  सीधा सम्बंध देखा जा सकता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाने के लिए, संस्कार युक्त परम्पराओं के योगदान को  भला कैसे नकारा जाएगा?

लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि सभी परम्पराएं आंख मूंद कर अपनाने योग्य ही होती है। कई परम्पराएं निष्प्रयोजन होती है। अकारण होती है। वस्तुतः सुविधाभोगी लोगों नें कुछ कठिन परम्पराओं को पहले प्रतीकात्मक और फिर विकृत बना दिया होता है। ये सुविधाभोगी भी और कोई नहीं, प्रारम्भ में तर्कशील होते है। रेश्नलिस्ट बनकर शुरू में, कष्टदायक कठिन परम्पराओं को लोगों के लिए दुखद बताते है। पुरूषार्थ से कन्नी काटते हुए, प्रतीकात्मक रूप देकर, कठिनता से बचने के मार्ग सुझाते है। और अन्ततः पुनः उसे प्रतीक कहकर और उसके तर्कसंगत न होने का प्रमाण देकर परम्परा का समूल उत्थापन कर देते है।

भले आज हम सुविधाभोगियों को दोष दे लें, पर समय के साथ साथ ऐसी निष्प्रयोजन परम्पराओं का अस्तित्व में आ जाना एक सच्चाई है। परम्पराएँ पहले प्रतीकात्मक बनती है, और अंत में मात्र 'प्रतीक' ही बचता है। 'प्रयोजन' सर्वांग काल के गर्त में खो जाता है। ऐसी निष्प्रयोजन परम्पराएँ ही रूढ़ि बन जाती है। हालांकि रूढ़िवादी प्रायः इन प्रतीको के पिछे छुपे 'असल विस्मृत प्रयोजन' से उसे सार्थक सिद्ध करने का असफल प्रयास करते है, पर प्रतीकात्मक रूढ़ि आखिर प्रतीक ही होती है। उसके औचित्य को प्रमाणित करना निर्थक प्रयास सिद्ध होता है। अन्ततः ऐसी रूढ़ि को ‘आस्था का प्रश्न’ कहकर तर्कशीलता से पिंड़ छुड़ाया जाता है। जब उसमें प्रयोजन रूपी जान ही नहीं रहती, तो तर्क से सिद्ध भी कैसे होगी। अन्ततः ‘आस्था’ के इस प्रकार दुरपयोग से, मूल्यवान आस्था स्वयं भी ‘निष्प्रयोजन आस्था’ सिद्ध हो जाती है।

ऐसी रूढ़ियों के लिए दो मार्ग ही बचते है। पहला तो इन रूढ़ियों को पुर्णतः समाप्त कर दिया जाय अथवा फिर उनके असली प्रयोजन सहित विस्मृत हो चुकी, कठिन कार्य-विधी का पुनर्स्थापन किया जाय।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

और मैं लिखता हूँ

सभ्यता की मांग है शिक्षा संस्कार की।
विवेक से पाई यह विद्या पुरस्कार सी।
अश्लील दृष्य देखे मेरे देश की पीढी।
गर्त भी इनको लगती विकास की सीढी।
कपडों से यह पीढी कहीं कंगली हो न जाय।
नाच इनका कहीं जंगली हो न जाय।
इसलिये मैं लिखता नूतन शक्ति के लिए।
और मैं लिखता हूँ इस अभिव्यक्ति के लिए॥

मानव है तो मानवता की कद्र कुछ कीजिए।
अभावग्रस्त बंधुओ पर थोडा ध्यान दीजिए।
जो सुबह खाते और शाम भूखे सोते है
पानी की जगह अक्सर आंसू पीते है।
आंसू उनके उमडता सैलाब हो न जाए।
और देश के बेटे कहीं यूं तेज़ाब हो न जाए।
इसलिए मैं लिखता अन्तिम दीन के लिए।
और मैं लिखता हूँ इस यकीन के लिए॥

निरपराध जीवहिंसा में जिनको शर्म नहिं है।
है बदनीयत बहाने, सच्चा कर्म नहिं है।
भूख स्वाद की कुतर्की में मर्म नहिं है।
‘जो मिले वह खाओ’ सच्चा धर्म नहिं है।
मनों से अनुकम्पा कहीं नष्ट हो न जाए।
सभ्यता विकास आदिम भ्रष्ट हो न जाए।
इसलिये मैं लिखता सम्वेदना मार्ग के लिए।
और मैं लिखता हूँ कुविचार त्याग के लिए।

आभिव्यक्ति का अक्षत अनुशासन है हिन्दी।
सहज सरल बोध सा संभाषण है हिन्दी।
समभाषायी छत्र में सबको एक करती है।
कई लोगों के भारती अब तो पेट भरती है।
प्रलोभन में हिन्दी का कहीं हास हो न जाए।
और मेरी मातृ वाणी का उपहास हो न जाय।
इसलिए मैं लिखता मेरी भाषा के लिए।
और मैं लिखता हूँ इस अभिलाषा के लिए॥