गुरुवार, 29 सितंबर 2011

और मैं लिखता हूँ

सभ्यता की मांग है शिक्षा संस्कार की।
विवेक से पाई यह विद्या पुरस्कार सी।
अश्लील दृष्य देखे मेरे देश की पीढी।
गर्त भी इनको लगती विकास की सीढी।
कपडों से यह पीढी कहीं कंगली हो न जाय।
नाच इनका कहीं जंगली हो न जाय।
इसलिये मैं लिखता नूतन शक्ति के लिए।
और मैं लिखता हूँ इस अभिव्यक्ति के लिए॥

मानव है तो मानवता की कद्र कुछ कीजिए।
अभावग्रस्त बंधुओ पर थोडा ध्यान दीजिए।
जो सुबह खाते और शाम भूखे सोते है
पानी की जगह अक्सर आंसू पीते है।
आंसू उनके उमडता सैलाब हो न जाए।
और देश के बेटे कहीं यूं तेज़ाब हो न जाए।
इसलिए मैं लिखता अन्तिम दीन के लिए।
और मैं लिखता हूँ इस यकीन के लिए॥

निरपराध जीवहिंसा में जिनको शर्म नहिं है।
है बदनीयत बहाने, सच्चा कर्म नहिं है।
भूख स्वाद की कुतर्की में मर्म नहिं है।
‘जो मिले वह खाओ’ सच्चा धर्म नहिं है।
मनों से अनुकम्पा कहीं नष्ट हो न जाए।
सभ्यता विकास आदिम भ्रष्ट हो न जाए।
इसलिये मैं लिखता सम्वेदना मार्ग के लिए।
और मैं लिखता हूँ कुविचार त्याग के लिए।

आभिव्यक्ति का अक्षत अनुशासन है हिन्दी।
सहज सरल बोध सा संभाषण है हिन्दी।
समभाषायी छत्र में सबको एक करती है।
कई लोगों के भारती अब तो पेट भरती है।
प्रलोभन में हिन्दी का कहीं हास हो न जाए।
और मेरी मातृ वाणी का उपहास हो न जाय।
इसलिए मैं लिखता मेरी भाषा के लिए।
और मैं लिखता हूँ इस अभिलाषा के लिए॥

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