सोमवार, 30 अगस्त 2010

प्रभु आयेंगे महावीर बनके।


कौन कहता है भगवान आते नहीं,
सम्यग् भाव तुम दिल में जगाते नहीं।
तुम गौतम बनो तो,तुम चंदना बनो तो,
प्रभु आयेंगे महावीर बनके।


सत्य कहने से कभी मत डरना,
पर विनय विवेक भी मत तज़ना।
तुम आनंद बनो तो, पूर्ण उपासक बनो तो,
गौतम आयेंगे क्षमाप्रार्थी बनके।


पश्च्याताप हृदय में जगाना,
पापभीरूता से पाप खपाना।
तुम अर्जुन बनो तो, सरल बोधी बनो तो,
प्रभु आयेंगे सुदर्शन बनके।


अनुकंपा से आत्म भरा हो,
जीवदया का व्रत खरा हो,
मेघरथ बनो तो, धर्मरूचि बनो तो,
प्रभु आयेंगे शांति-वीर बनके।


समता का ध्यान तुम लगाना,
क्षमावीर बन भय को भगाना।
तुम खंदक बनो तो, या मैतार्य बनो तो,
प्रभु आयेंगे महावीर बनके।

उँची राखै दुजांरी पाग, वा मण भर उँचौ मानवी॥

स्वहित-घरहित-कुलहित, एक सरीखो मांन।
पण जद आवै समाजहित, तज़ देवै अभिमान।
नहिं चा’वै वा किणरी लाग, भूंडा में नहिं राखै भाग।
चढता नें झट देवै मा’ग, वा मण भर उँचौ मानवी॥


सुणै वात सगळां री, नहिं आवेश उतावळ आणै।
लाख वार सोचे तोले, फ़िर ठावक़ बोलण जाणै।
मुँडे नहिं वै कड़वा फ़ाग, सर्वहित में रे’वै सज़ाग।
खिमताधर छाती रो वाग़, वा मण भर उँचौ मानवी॥


विद्वान-विरोधियां रे परत भी, मन में मान उपजावै।
कौण कठै कांई बोळ्यो, वा वात न डाढै घाळै।
झट देवै उणनै सौभाग, आंतरडै नहिं राखै दाग़ ।
उँची राखै दुजांरी पाग, वा मण भर उँचौ मानवी॥


न आँटी घूंटी और टँटौ, न रोष द्वैष मन मैलो।
सच्चाई नें देख पक्ष में, पडखौ फ़ेरे पहळौ।
समाज सूं राखै एहवो राग,माळी सरीखो पोखै बाग़ ।
रगडा नें नहिं देवै आग, वा मण भर उँचौ मानवी॥

क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में, अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।


कोई अपमान कैसे करेगा,
हमको अपने अभिमान ने मारा।
लोग ठग ही न पाते कभी भी,
हमको अपने ही लोभ ने मारा।


क्रोध अपना लगाता है अग्नि,
दावानल सा लगे जग सारा।
लगे षडयंत्र रचती सी दुनियां,
खुद की माया नें जाल रचाया।


मेरा दमन क्या दुनिया करेगी,
मुझको अपने ही मोह ने बांधा।
रिश्ते बनते है पल में पराए,
मैने अपना स्वार्थ जब साधा।


दर्द आते है मुझ तक कहां से,
खुद ही ओढा भावों का लबादा।
इच्छा रहती सदा ही अधूरी,
पाना चाहा देने से भी ज्यादा।


खुद का स्वामी मुझे था बनना,
मैने बाहर ही ढूंढा खेवैया।
स्व कषायों ने नैया डूबो दी,
जब काफ़ी निकट था किनारा।


मिथ्या कहलाता है जग इसी से,
क्योंकि जग में भ्रमणाओं का घेरा।
क्या ढ़ूंढे हम दुश्मन जगत में,
अपने अंदर है दुश्मनों का डेरा।

बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं ॥

(यह राजस्थानी गीत, “मोरिया आछो बोळ्यो रे……” लय पर आधारित है।)

बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं।
थांरी कौडी नहिं लेवुं रे छदाम, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं ॥

बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां, बुढापा पहली तो उंचै महलां बैठतां। बैठतां, बैठतां
अबै तो डेरा थांरा पोळियाँ रे मांय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां, बुढापा पहली तो हिंगळू ढोळिए पोढतां। पोढतां, पोढतां,
अबै तो फ़ाटो राळो ने टूटी खाट, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठतां, बुढापा पहली तो भरिया चौटे बैठता। बैठतां, बैठतां
अबै तो देहली भी डांगी नहिं जाय, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां, बुढापा पहली तो षटरस भोजन ज़ीमतां। ज़ीमतां, ज़ीमतां
अबै तो लूखा टूकडा ने खाटी छास, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां, बुढापा पहली तो घर का हंस हंस बोलतां। बोलतां, बोलतां
अबै तो रोयां भी पूछे नहिं सार, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो, बुढापा पहली तो धर्म ध्यान ना कियो। ना कियो, ना कियो
अबै तो होवै है गहरो पश्च्याताप, बुढापा कोई लेवे तो थने बेच दूं॥ थांरी कौडी……।

रचना शब्दकार -अज्ञात

रविवार, 1 अगस्त 2010

परमेष्ठी वंदन

सर्व प्रथम वंदन करूं, वितराग भगवान।

तीर्थंकर अर्हंत प्रभु,भवतारक जलयान॥




जिनवाणी पर आस्था, शमन करे भवताप।

स्मरण मनन जगे चेतना, हरे सभी सन्ताप॥



प्रभु आज्ञा में रमण करे, संत मुनि निर्ग्रंथ।

आर्षवचन उपदेश से, करे उपकार अंनत॥



बडे जतन से जीव का, जीवन दिया संवार।

भूल नहिं सकते कभी, परमेष्ठी उपकार॥