गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र और धर्मश्रवण दुर्लभ है

क्यों न गर्व करें, इस देवरमणभूमि पर जिस के कण कण में अहिंसा व्याप्त है,जहां आकर हिंसाप्रधान संस्कृतियाँ भी स्वयं में दया,करूणा व शांति खोज खोज कर उद्धत करने लगती है।जिस धरा पर कितने भी कुसास्कृतिक आक्रमण हुए पर वह अपनी अहिंसा रूपी जडों से सिंचित होकर पुनः पल्लवित होते हुए, गुणों को उपार्जित कर समृद्ध बन जाती है।
क्यों न गर्व करें, इस आर्यभूमि में प्रकटे धर्मों पर, जिनका यहाँ प्रवर्तन हुआ और सहज पल्ल्वित हुए। वे कल भी सुमार्ग दर्शक थे और आज भी अपनी दिव्य उर्जा से सुमार्ग प्रकाशित बन, मानव को इस दुनिया का श्रेष्ठ, सभ्य और सत्कर्मी मनुष्य बनाए हुए है।
क्यों न गर्व करें, उन धर्म-शास्त्रों पर, जिनमें आज भी जगत के सर्वश्रेष्ठ सद्गुण निष्पन्न करने की शाक्ति है। वे आज भी मानव को सभ्य सुसंस्कृत बनाने का सामर्थ्य रखते है। जो प्रकृति के सद्भावपूर्ण उपयोग का मार्गदर्शन करते है,जो मात्र मानव के हित ही नहिं बल्कि समस्त जगत की जीवसृष्टि के अनुकूल जीवन-दर्शन को प्रकाशित करते है।
क्यों न गर्व करें, उन सुधारक महापुरूषों पर, जिनकी प्रखर विचारधारा व सत्यपरख नें समय समय धर्म, समाज और संस्कृति में घुस आई विकृतियों को दूर करने के प्रयास किये। कुरितियां दर्शा कर उन्हे दूर कर, धर्म का जीर्णोद्धार करके, हमारे ज्ञान, दर्शन व आचरण को शुद्ध करते रहे।
सत्य धर्म सदैव हमें सद्गुण सुसंस्कार और सभ्य-जीवन की प्रेरणा देते रहे हैं। असंयम (बुराईयों) के प्रति हमारे अंतरमन में अरूचि अरति पैदा करते रहे हैं। आज हम जो भी सभ्य होने का श्रेय ले रहे है, इन्ही सद्विचारों की देन है। धर्म के प्रति मै तो सदैव कृतज्ञ रहुंगा।

उतरोत्तर, मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र और धर्मश्रवण दुर्लभ है, मै तो कृतज्ञ हूँ, आप………?

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

भोगवाद, प्रकृति के संग अहसान फरामोशी

तेरे जीवन निर्वाह के लिये, तेरी आवश्यकता से भी अधिक संसाधन तुझे प्रकृति ने दिए, और तुने उसका अनियंत्रित अनवरत दोहन व शोषण आरंभ कर दिया। तुझे प्रकृति ने धरा का मुखिया बनाया, तुने अन्य सदस्यों के मुंह का निवाला भी छीन लिया। तेरी सहायता के लिये प्राणी बने, तुने उन्हे पेट का खड्डा भरने का साधन बनाया। सवाल पेट का होता तो जननी इतनी दुखी न होती। पर स्वाद की खातिर, इतना भ्रष्ट हुआ कि अखिल प्रकृति पाकर भी तूं, धृष्टता से भूख और अभाव के बहाने बनाता रहा। तेरे पेट की तृष्णा तो कदाचित शान्त हो जाय, पर तेरी बेलगाम इच्छाओं की तृष्णा कभी शान्त न हुई, कृतघ्न मानव।

जितना लिया इस प्रकृति से, उसका रत्तीभर अंश भी लौटाने की तेरी नीयत नहिं। लौटाना क्या, संयत उपयोग की भी तेरी कामना न बनी। प्रकृति ने तुझे संतति विस्तार का वरदान दिया। तूं अपनी संतान को माँ प्रकृति के संरक्षण में नियुक्त करता,अपनी संतति को प्रकृति के मितव्ययी उपभोग का ज्ञान देता। निर्लज्ज!!, इसी तरह संतति विस्तार के वरदान का ॠण चुकाता। किन्तु तुने अपनी औलादों से लूटेरो की फ़ौज़ बनाई और छोड दिया कृपालु प्रकृति को रौंदने के लिए। वन लूटे, जीव-प्राण लूटे, पहाड के पहाड लूटे।निर्मल बहती नदियाँ लूटी,उपजाऊ जमीने लूटी। समुद्र का खार लूटा, स्वर्णधूल अंबार लूटा। इससे भी न पेट भरा तो, खोद तरल तेल भी लूटा।

तूने तो प्रकृति के सारे गहने उतार, उसे उजाड ही कर दिया। हे! बंजरप्रिय!! कृतघ्न मानव!!! प्रकृति तो फ़िर भी ममतामयी माँ ही है, उससे तो तेरा कोई दुख देखा नहिं जाता। उसकी यह चिंता रहती है, मेरे उजाड पर्यावरण से भी बच्चो को तकलीफ न हो। वह ईशारे दे दे कर संयम का संदेश दे रही है। पर तूं भोगलिप्त भूखा जानकर भी अज्ञानी ही बना रहा। कर्ज़ मुक्त होने की तेरी कभी भी नीयत न रही। हे! अहसान फ़रामोश इन्सान!! कृतघ्न मानव!!!

रविवार, 19 दिसंबर 2010

विश्वास का द्वंद्व

यात्री पैदल रवाना हुआ, अंधेरी रात का समय, हाथ में एक छोटी सी टॉर्च। मन में विकल्प उठा, मुझे पांच मील जाना है,और इस टॉर्च की रोशनी तो मात्र पांच छः फ़ुट ही पडती है। दूरी पांच मील लम्बी और प्रकाश की दूरी-सीमा अतिन्यून। कैसे जा पाऊंगा? न तो पूरा मार्ग ही प्रकाशमान हो रहा है न गंतव्य ही नजर आ रहा है। वह तर्क से विचलित हुआ, और पुनः घर में लौट आया। पिता ने पुछा क्यों लौट आये? उसने अपने तर्क दिए - "मैं मार्ग ही पूरा नहिं देख पा रहा, मात्र छः फ़ुट प्रकाश के साधन से पांच मील यात्रा कैसे सम्भव है। बिना स्थल को देखे कैसे निर्धारित करूँ गंतव्य का अस्तित्व है या नहिं।" पिता ने सर पीट लिया……

अल्प ज्ञान के प्रकाश में हमारे तर्क भी अल्पज्ञ होते है, वे अनंत ज्ञान को प्रकाशमान नहिं कर सकते। यदि हमारी दृष्टि ही सीमित है तो तत्व का अस्तित्व होते हुए भी हम देख नहिं पाते।

आजीविका गुणधर्म मुक्तक

आजीविका कर्म भी धर्म-प्रेरित चरित्र युक्त करना चाहिए।
जीवन निर्वाह के साथ साथ जीवन निर्माण भी करना चाहिए।
परिवार का निर्वाह गृहस्वामी बनकर नहिं बल्कि गृहन्यासी (ट्रस्टी) बनकर निस्पृह भाव से करना चाहिए।
सत्कर्म से प्रतिष्ठा अर्जित करें व सद्चरित्र से विश्वस्त बनें।
कथनी व करनी में समन्वय करें।
कदैया (परदोषदर्शी) नहिं, सदैया (परगुणदर्शी) बने।
सद्गुण अपनानें में स्वार्थी बनें, आपका चरित्र स्वतः परोपकारी बन जायेगा।
इन्द्रिय विषयों व भावनात्मक आवेगों में संयम बरतें।
उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव रखें।
भोग-उपभोग को मर्यादित करके, संतोष चिंतन में उतरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए।
आय से अधिक खर्च करने वाला अन्ततः पछताता है।
कर्ज़ लेकर दिखावा करना, शान्ती बेच कर संताप खरीदना है।
प्रत्येक कार्य में लाभ हानि का विचार अवश्य करना चाहिए, फिर चाहे कार्य ‘वचन व्यवहार’ मात्र ही क्यों न हो।
आजीविका-कार्य में जो साधारण सा झूठ व साधारण सा रोष विवशता से प्रयोग करना पडे, पश्चाताप चिंतन कर लेना चाहिए।
राज्य विधान विरुद्ध कार्य (करचोरी, भ्रष्टाचार आदि) नहिं करना चाहिए। त्रृटिवश हो जाय तब भी ग्लानी भाव महसुस करना चाहिए।

धर्म का प्रभाव

एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहिं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहिं करोगे तब तक दिल्ली नहिं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहिं चलेंगे, उस और गति नहिं करेंगे, धर्म पा नहिं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहिं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहिं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहिं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहिं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहिं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहिं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहिं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।

मोहबंधन

एक दार्शनिक जा रहा था। साथ में मित्र था। सामने से एक गाय आ रही थी, रस्सी गाय के बंधी हुई और गाय मालिक रस्सी थामे हुए। दार्शनिक ने देखा, साक्षात्कार किया और मित्र से प्रश्न किया- “बताओ ! गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है?” मित्र नें तत्काल उत्तर दिया “यह तो सीधी सी बात है, गाय को आदमी पकडे हुए है, अतः गाय ही आदमी से बंधी हुई है।
दार्शनिक बोला- यदि यह गाय रस्सी छुडाकर भाग जाए तो आदमी क्या करेगा? मित्र नें कहा- गाय को पकडने के लिये उसके पीछे दौडेगा। तब दार्शनिक ने पूछा- इस स्थिति में बताओ गाय आदमी से बंधी है या आदमी गाय से बंधा हुआ है? आदमी भाग जाए तो गाय उसके पीछे नहिं दौडेगी। जबकि गाय भागेगी तो आदमी अवश्य उसके पीछे अवश्य दौडेगा। तो बंधा हुआ कौन है? आदमी या गाय। वस्तुतः आदमी ही गाय के मोहपाश में बंधा है।
व्यवहार और चिंतन में यही भेद है।
मानव जब गहराई से चिंतन करता है तो भ्रम व यथार्थ में अन्तर स्पष्ठ होने लगता है।

दरिद्र

आस्था दरिद्र : जो सत्य पर भी कभी आस्थावान नहिं होता।
त्याग दरिद्र : समर्थ होते हुए भी, जिससे कुछ नहिं छूटता।
दया दरिद्र : प्राणियों पर लेशमात्र भी अनुकम्पा नहिं करता।
संतोष दरिद्र : आवश्यकता पूर्ण होनें के बाद भी इच्छा तृप्त नहिं होती।
वचन दरिद्र : जिव्हा पर कभी भी मधुर वचन नहिं होते।
मनुज दरिद्र : मानव बनकर भी जो पशुतुल्य तृष्णाओं से मुक्त नहिं हो पाता।
धन दरिद्र : जिसके पास न्यून भी धन नहिं होता।

अहंकार के सु्ख़ दुख़

बचपन में एक चुटकला सुना था, लोग रेल यात्रा कर रहे थे। एक व्यक्ति खडा हुआ और खिडकी खोलदी, थोडी ही देरमें दूसरा उठा और उसने खिडकी बंद कर दी। पहले को यह बंद करना नागवार गुजरा और उठ कर पुनः खोलदी।एक बंद करता दूसरा खोल देता। नाटक शुरु हो गया। यात्रियों का मनोरंजन हो रहा था लेकिन अंततः सभी तंग आगये। टी टी को बुलाया गया, टी टी ने पुछा, महाशय ! यह क्या कर रहे हो? क्यों बार बार खोल-बंद कर रहे हो? पहला यात्री बोला क्यों न खोलूं मैं गर्मी से परेशान हूं खिडकी खुली ही रहनी चाहिए। टी टी ने दूसरे यात्री को कहा भाई आपको क्या आपत्ति है, अगर खिडकी खुली रहे। उस दूसरे यात्री ने कहा मुझे ठंड लग रही है, मुझे ठंड सहन नहिं होती। टी टी बिचारा परेशान, एक को गर्मी लग रही है तो दूसरे को ठंड। टी टी यह सोचकर खिडकी के पास गयाकि कोई मध्यमार्ग निकल आए,उसने देखा और मुस्करा दिया। खिडकी में शीशा ही नहिं था। मात्र फ़्रेम थी। वहबोला कैसी गर्मी या कैसी ठंडी? यहां तो शीशा ही गायब है, आप दोनो तो मात्र फ़्रेम को ही उपर नीचे कर रहे हो। दोनोंयात्री न तो गर्मी और न ही ठंडी से परेशान नहिं थे। बल्कि वे परेशान थे तो मात्र अपने अहंकार से।
अधिकाँश कलह इसलिये होते है कि अहंकार को चोट पहुँचती है। आदमी को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचानेमें आता है और सबसे ज्यादा क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है। जो दूसरो के अहंकार को चोट पहुँचानेमें सफ़ल होता है वह मान लेता है वह कुछ विशेष बन गया है। अधिकांश लडाइयों के पिछे कारण एक छोटा सा अहं ही होता है।

प्रदर्शन ही पाखंड

समता, सज्जनता, सदाचार, सुविज्ञता और सम्पन्नता। निश्चित ही यह उत्तम गुण है, बस इनका प्रदर्शन हीपाखंड है। ऐसे पाखण्ड वस्तुत: व्यक्तिगत दोष है, पर बदनाम धर्म को किया जाता है। मात्र इसलिये कि इनगुणों की शिक्षा धर्म देता है।