शनिवार, 12 नवंबर 2011

अनेकांतवाद :

अनेकांतवाद :

इस जगत में अनेक वस्तुएँ हैं और उनके अनेक धर्म (गुण-तत्व) हैं। जैन दर्शन मानता है कि मनुष्यों, पशुओं, पक्षियों, पेड़ और पौधों में ही चेतना या जीव नहीं होते बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे दृश्यमान-जड़ पदार्थ  भी जीव सकन्ध समान होता हैं। पुदगलाणु भी अनेक और अनंत हैं जिनके संघात बनते-बिगड़ते रहते हैं।अनेकांतवाद कहता है कि वस्तु के अनेक गुण-धर्म होते हैं। वस्तु  की पर्याएं बदलती रहती है। इसका मतलब कि पदार्थ उत्पन्न और विनष्ट होता रहता है, परिवर्तनशील, आकस्मिक और अनित्य है। अत: पदार्थ या द्रव्य का लक्षण है बनना, बिगड़ना और फिर बन जाना। यही अनेकांतवाद का सार है।इसे इस तरह में समझें कि हर वस्तु को मुख्य और गौण, दो भागों में बाँटें तो एक दृष्टि से एक चीज सत्‌ मानी जा सकती है, दूसरी दृष्टि से असत्‌। अनेकांत में समस्त विरोधों का समन्वय हो जाता है। अत: सत्य को अनेक दृष्टिकोण से देखा जा सकता है।

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

अधिक सम्मान का अधिकारी कौन?


क बार राजा के पुरोहित के मन में विचार आया कि राजा जो मुझे आदर भाव से देखता है, वह सम्मान मेरे ज्ञान का है या मेरे सदाचार का? अगले दिन पुरोहित ने राजकोष से एक सिक्का उठा लिया, जिसे कोष-मंत्री ने देख लिया। उसने सोचा पुरोहित जैसा महान व्यक्ति सिक्का उठाता है तो कोई विशेष प्रयोजन होगा। दूसरे दिन भी यही घटना दोहराई गई। फ़िर भी मंत्री कुछ नहीं बोला तीसरे दिन पुरोहित नें कोष से मुट्ठी भर सिक्के उठा लिए। तब मंत्री ने राजा को बता दिया। राजा नें दरबार में राज पुरोहित से पुछा- क्या मंत्री जी सच कह रहे है?

राज पुरोहित ने उत्तर दिया-‘हां महाराज’ राजा नें राज पुरोहित को तत्काल दंड सुना दिया। तब राजपुरोहित बोला-महाराज! मैने सिक्के उठाए पर मैं चोर नहीं हूँ। मैं यह जानना चाहता था कि सम्मान मेरे ज्ञान का हो रहा है या मेरे सदाचार का? वह परीक्षा हो गई। सम्मान अगर ज्ञान का होता तो आज कटघरे में खड़ा न होता। ज्ञान जितना कल था, उतना ही आज भी मेरे पास सुरक्षित है। पर मेरा केवल सदाचार खण्ड़ित हुआ और मैं सम्मान की जगह दंड योग्य अपराधी निश्चित हो गया। सच ही है चरित्र ही सम्मान पाता है।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

सार्थक जीवन





प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से जीवन को सार्थक बनाना चाहता है। यह बात अलग है कि उसका जो भी तरीका है, उससे जीवन सार्थक होता है या नहीं?

प्रायः बहिर्मुख-मानव भोग-उपभोग की विपुलता में, ऐन्द्रियिक विषयों के सेवन में ही मानव-जीवन की सार्थकता देखता है। किन्तु अन्तर्मुख मानव इन भोगोपभोग में जीवन का दुरूपयोग देखता है और उदारता, दान, दया, परोपकार आदि उदात्त भावों के सेवन में जीवन का सदुपयोग अनुभव करता है।
वस्तुतः मनुष्य जीवन की सार्थकता अपने जीवन को सु-संस्कृत, परिष्कृत, विशुद्ध और परिमार्जित करने में है। मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है। इन्ही प्रयत्नो की परम्परा में मन वचन और काया से ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना ही प्रमुख है।

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

नीर क्षीर विवेक अर्थात् सम्यक् भेद

कुछ लोग कहते है  कि हमें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। किसी को भला, किसी को बुरा कहना राग-द्वेष है। सही भी है किसी की निंदा करना बुरा है। किन्तु, भले और बुरे में सम्यक भेद करना उससे भी कहीं अधिक उत्तम है।  भला-बुरा, हित-अहित और सत्यासत्य का विवेक रखकर,  बुरा अहितकारी और असत्य का त्याग करना। भला, हितकारी और सत्य का आदर करना तो एक आवश्यक गुण ही है। जो जैसा है, उसे वैसा ही, बिना किसी अतिश्योक्ति के निरूपित करना, कहीं से भी बुरा कर्म नहीं है।

एक व्यापारी को एक अपरिचित व्यक्ति के साथ लेन-देन व्यवहार करना था। रेफरन्स के लिए उसने, उसके परिचित और अपने एक मित्र को पूछा- “यह व्यक्ति कैसा है? इसके साथ लेन देन व्यवहार करनें में कोई हानि तो न होगी”

उस व्यापारी का मित्र सोचने लगा- मैं किसी के दोष क्यों बताऊँ? दोष दर्शाना तो निंदा है। मुझे तो उसकी प्रसंशा करनी चाहिए। इसप्रकार विचार करते हुए उस मित्र नें उस धूर्त की प्रशंसा ही कर दी। सच्चाई और ईमानदारी गुण, जो कि उसमें थे ही नहीं, उस धूर्त के लिए गढ दिए। मित्र की बात पर विश्वास करके व्यापारी ने उस धूर्त व्यक्ति के साथ व्यवहार कर दिया और कुछ ही समय में धूर्त सब कुछ समेट कर गायब हो गया। ठगा सा व्यापारी अपने मित्र के पास जाकर कहनें लगा- “मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, तुमनें मुझे बरबाद कर दिया। तुम्हारे द्वारा की गई धूर्त की अनावश्यक प्रसंशा नें मुझे तो डूबा ही दिया। तुमनें मुझ निरपराध को धोखा क्यों दिया? तुम तो मेरे मित्र-परिचित थे, तुमनें उसकी सत्य हक़ीकत छुपा कर झूठी प्रसंशा क्यों की?”

प्रशंसक कहने लगा- “मैं आपका शत्रु नहीं मित्र ही हूँ, और सज्जन भी हूँ। कोई भी भला व्यक्ति, किसी के दोष नहीं देखता, निंदा करना तो पाप है। मैनें तुम्हें हानि पहूँचाने के उद्देश्य से उसकी प्रशंसा नहीं की। बल्कि, यह सोचकर कि 'सज्जन व्यक्ति सभी में गुण ही देखता है', -मैने तत्काल प्रशंसा की”

“तो क्या उसमें ईमानदारी और सच्चाई के गुण थे?”

-“हाँ, थे न! वह प्रथम ईमानदारी प्रदर्शीत करके ही तो अपनी प्रतिष्ठा जमाता था। वह  सच्चाई व ईमानदारी से साख जमा कर प्रभावशाली व्यवहार से रहा करता था। धौखा तो मात्र उसने अन्तिम दिन ही दिया जबकि लम्बी अवधी तक वह नैतिक ही बना रहा। अधिकाल गुणों की उपेक्षा करना और थोड़े से दोषों को दिखाकर निंदा करना तो पाप है। भला मैं ऐसा पाप क्यों करूँ?” -उसने सफाई दी।

-“वाह! भाई वाह!, तुम्हारा चिंतन और गुणग्राहकता कमाल की है। तुम्हारी इस सज्ज्ननता नें, मेरी तो लुटिया ही डुबो दी। तुम्हारी गुणग्राहकता तो, उस ठग की सहयोगी ही बन गई। उसकी ईमानदारी और सच्चाई तो प्रदर्शन मात्र थी, केवल धूर्तता के लिए ही थी। भीतर तो बेईमानी ही छुपी थी। मैने आज यह समझा कि धूर्तो से भी तुम्हारे जैसे गुणग्राहक तो अधिक खतरनाक होते है”। - व्यापारी अपने भाग्य को कोसता हुआ चला गया।

कोई वैद्य या डॉक्टर यदि रोगी में रोग लक्षणों को उजागर न करे, या फिर, रोग को उजागर करना बुरा माने अथवा ऐसा करने को सेहत की श्रेष्ठता का बखान माने। अथवा फिर सेहत और रोग के लक्षणों को सम्भाव से समान मानकर उनका विश्लेषण ही न करे, तो निदान कैसे होगा? और अन्ततः वह रोग कारकों से बचने का परामर्श न दे। कुपथ्य से परहेज का निर्देश न करे। उपचार हेतू कड़वी दवा न दे तो रोगी का रोग से पिंड छूटेगा कैसे? ऐसा करता हुआ डॉक्टर कर्तव्यनिष्ट सज्जन या मौत का सौदागर?

कोई भी समझदार कांटों को फूल नहीं कहता, विष को अमृत समझकर ग्रहण नहीं करता। गोबर और हलवे के प्रति समभाव रखकर कौन समाचरण करेगा? छोटा बालक यदि गोद में मल विसर्जन कर कपडे खराब कर दे तो कहना ही पडता है कि ‘उसने गंदा कर दिया’। न कि यह कहेंगे ‘उसने अच्छा किया’। इस प्रकार बुरा कहना, बच्चे के प्रति द्वेष नहीं है। बुरे को बुरा कहना सम्यक् आचरण है।

संसार में अनेक मत-मतान्तर है। उसमें से जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है। विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोडना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है।

भले बुरे में सम्यक् विभाजन करके, बुरे को त्यागना और भले को अपनाना ही नीर क्षीर विवेक है।

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

विनय और विनम्रता



विनम्रता आपके आंतरिक प्रेम की शक्ति से आती है। दूसरों को सहयोग व सहायता का भाव ही आपको विनम्र बनाता है। यह कहना गलत है कि यदि आप विनम्र बनेंगे तो दूसरे आपका अनुचित लाभ उठाएँगे। जबकि यथार्थ स्वरूप में विनम्रता आपमें गज़ब का धैर्य पैदा करती है। आपमे सोचने समझने की क्षमता का विकास करती है। विनम्र व्यक्तित्व का एक प्रचंड आभामण्डल होता है। धूर्तो के मनोबल उस आभा से निस्तेज हो स्वयं परास्त हो जाते है। उल्टे जो विमम्र नहीं होते वे आसानी से धूर्तों के प्रभाव में आ जाते है क्योंकि धूर्त को तो अहंकारी का मात्र चापलूसी से अहं सहलाना भर होता है। बस चापलूसी से अहंकार प्रभावित हो जाता है। किन्तु जहाँ विनम्रता होती है वहाँ तो व्यक्ति को सत्य की अथाह शक्ति प्राप्त होती है। सत्य की शक्ति, मनोबल प्रदान करती है।

विनम्रता के प्रति पूर्ण समर्पण युक्त आस्था जरूरी है। मात्र दिखावे की ओढी हुई विनम्रता, अक्सर असफ़ल ही होती है। सोचा जाता है-पहले विन्रमता से निवेदन करूंगा यदि काम न हुआ तो भृकुटि टेढी करूंगा यह चतुरता विनम्रता के प्रति अनास्था है, छिपा हुआ अहं भी है। कार्य पूर्व ही अविश्वास व अहं का मिश्रण असफलता ही न्योतता है। सम्यक् विनम्र व्यक्ति, विनम्रता को झुकने के भावार्थ में नहीं लेता। सच्चाई उसका पथप्रदर्शन करती है। निश्छलता उसे दृढ व्यक्तित्व प्रदान करती है।

अहंकार सदैव आपसे दूसरों की आलोचना करवाता है। वह आपको आलोचना-प्रतिआलोचना के एक प्रतिशोध जाल में फंसाता है। अहंकार आपकी बुद्धि को कुंठित कर देता है। आपके जिम्मेदार व्यक्तित्व को संदेहयुक्त बना देता है। अहंकारी दूसरों की मुश्किलों के लिए उन्हें ही जिम्मेवार कहता है और उनकी गलतियों पर हंसता है। जबकि अपनी मुश्किलो के लिए सदैव दूसरों को जवाबदार ठहराता है। और लोगों से द्वेष रखता है।

विनम्रता हृदय को विशाल, स्वच्छ और ईमानदार बनाती है। यह आपको सहज सम्बंध स्थापित करने के योग्य बनाती है। विनम्रता न केवल दूसरों का दिल जीतने में कामयाब होती है अपितु आपको अपना ही दिल जीतने के योग्य बना देती है। जो आपके आत्म-गौरव और आत्म-बल में उर्ज़ा का अनवरत संचार करती है। आपकी भावनाओं के द्वन्द समाप्त हो जाते है। साथ ही व्याकुलता और कठिनाइयां स्वतः दूर होती चली जाती है। एक मात्र विनम्रता से ही सन्तुष्टि, प्रेम और सकारात्मकता आपके व्यक्तित्व के स्थायी गुण बन जाते है।

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

समता



मता का अर्थ है मन की चंचलता को विश्राम, समान भाव को जाग्रत और दृष्टि को विकसित करें तो ‘मैं’ के सम्पूर्ण त्याग पर समभाव स्थिरता पाता है। समभाव जाग्रत होने का आशय है कि लाभ-हानि, यश-अपयश भी हमें प्रभावित न करे, क्योंकि कर्मविधान के अनुसार इस संसार के रंगमंच के यह विभिन्न परिवर्तनशील दृश्य है। हमें एक कलाकार की भांति विभिन्न भूमिकाओं को निभाना होता है। इन पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं है। कलाकार को हर भूमिका का निर्वहन तटस्थ भाव से करना होता है। संसार के प्रति इस भाव की सच्ची साधना ही समता है।

समता का पथ कभी भी सुगम नहीं होता, हमने सदैव इसे दुर्गम ही माना है। परन्तु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है? हमने एक बार किसी मानसिकता को विकसित कर लिया तो उसे बदलने में वक्त और श्रम लगता है। यदि किसी अच्छी वस्तु या व्यक्ति को हमने बुरा माननें की मानसिकता बना ली तो पुनः उसे अच्छा समझने की मानसिकता तैयार करने में समय लगता है। क्योंकि मन में एक विरोधाभास पैदा होता है,और प्रयत्नपूर्वक मन के विपरित जाकर ही हम अच्छी वस्तु को अच्छी समझ पाएंगे। तब हमें यथार्थ के दर्शन होंगे।

जीवन में कईं बार ऐसे मौके आते है जब हमें किसी कार्य की जल्दी होती है और इसी जल्दबाजी और आवेश में अक्सर कार्य बिगड़ते हुए देखे है। फिर भी क्यों हम धैर्य और समता भाव को विकसित नहीं करते। कईं ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने उपस्थित होते है जब आवेश पर नियंत्रण, सपेक्ष चिंतन और विवेक मंथन से कार्य सुनियोजित सफल होते है और प्रमाणित होता है कि समता में ही श्रेष्ठता है।

समता रस का पान सुखद होता है। समता जीवन की तपती हुई राहों में सघन छायादार वृक्ष है। जो ‘प्राप्त को पर्याप्त’ मानने लगता है, उसके स्वभाव में समता का गुण स्वतः स्फूरित होने लगता है। समता की साधना से सारे अन्तर्द्वन्द्व खत्म हो जाते है, क्लेश समाप्त हो जाते है। उसका समग्र चिंतन समता में एकात्म हो जाता है। चित्त में समाधि भाव आ जाता है।

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

जीवन का लक्ष्य


जो मनुष्य, जीव (आत्मा) के अस्तित्व को मानता है, उसके लिए जीवन के लक्ष्य को खोजने की बात पैदा होती है। जो मनुष्य जीव के अस्तित्व को नहीं मानता या मात्र इस भव (मनुष्य जीवन) जितना ही इस जीवन को मानता है तो उसके लिए कमाना, खाना और मज़े (विलास) करना ( Like : ‘Eat, Drink and be merry’) यह बाह्य बातें ही जीवन-लक्ष्य होती है। अगर चिंतक नास्तिक हुआ तो कला, साहित्य, संगीत, सिनेमा आदि को भी अपने जीवन का लक्ष्य मान सकता है। किन्तु यह उच्च कक्षा के नैतिकता सम्पन्न नास्तिक के विषय में ही समझना चाहिए।
 
इसी प्रकार जिन जीवों को कुछ भी तत्व जिज्ञासा नहीं है, वे जीव भी बाहर के लक्ष्य में ही खो जाते है। ऐसे जीव बहिरात्मा है। वे स्थूल लक्ष्यों को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते है। परन्तु जिन्हें जीव के त्रैकालिक अस्तित्व में विश्वास है, वह चिंतन के माध्यम से अपने जीवन-लक्ष्य का निर्धारण करता है।
 
वह सोचता है कि जो सामान्य मनुष्य खाने पीने-विलास में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं, क्या मुझे भी वैसे ही जीवन व्यतीत कर देना है? – ऐसा जीवन तो मात्र मृत्यु के लक्ष्य से ही जिया जाता है। जन्म लेना और भोग-भाग कर मर जाना? यह तो मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। अथवा फिर नाम अमर रखने का लक्ष्य भी नहीं हो सकता क्योंकि उस नाम-अमरत्व का मेरी आत्मा को कोई फायदा मिलना नहीं है। जन्म और मृत्यु के मध्य का काल किसी विशिष्ठ पुरूषार्थ के प्रयोजनार्थ है। इसलिए मेरे जीवन का कोई ऐसा उत्तम लक्ष्य अवश्य होना चाहिए, जिससे मेरा जीवन सार्थक हो। यदि वह ज्ञानियों के वचनों के बल से अपने जीवन के लक्ष्य को खोजता है, तो वह निर्णय करता है कि मेरी आत्मा की शक्तियों का चरम और परम विकास करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है।
 
हमारे इस विकास में मुख्य बाधक कारण है- हमारे विकार। अतः हमें दो साधनो को अपनाना होगा। पहला साधन है- विकारों पर विराम। और दूसरा साधन है- गुणों के समरूप भावों का आराधन। विकारों के विराम हेतू व्रत-नियम-संयम है और आत्मा में सद्गुणों के उत्थान हेतू ज्ञान-दर्शन-चरित्र का आराधन है। इसी साधना का चरम बिंदु सत्-चित-आनंद अवस्था होगी। इसी से मोक्ष रूप लक्ष्य की सिद्धि होती है।