सोमवार, 30 अगस्त 2010

उँची राखै दुजांरी पाग, वा मण भर उँचौ मानवी॥

स्वहित-घरहित-कुलहित, एक सरीखो मांन।
पण जद आवै समाजहित, तज़ देवै अभिमान।
नहिं चा’वै वा किणरी लाग, भूंडा में नहिं राखै भाग।
चढता नें झट देवै मा’ग, वा मण भर उँचौ मानवी॥


सुणै वात सगळां री, नहिं आवेश उतावळ आणै।
लाख वार सोचे तोले, फ़िर ठावक़ बोलण जाणै।
मुँडे नहिं वै कड़वा फ़ाग, सर्वहित में रे’वै सज़ाग।
खिमताधर छाती रो वाग़, वा मण भर उँचौ मानवी॥


विद्वान-विरोधियां रे परत भी, मन में मान उपजावै।
कौण कठै कांई बोळ्यो, वा वात न डाढै घाळै।
झट देवै उणनै सौभाग, आंतरडै नहिं राखै दाग़ ।
उँची राखै दुजांरी पाग, वा मण भर उँचौ मानवी॥


न आँटी घूंटी और टँटौ, न रोष द्वैष मन मैलो।
सच्चाई नें देख पक्ष में, पडखौ फ़ेरे पहळौ।
समाज सूं राखै एहवो राग,माळी सरीखो पोखै बाग़ ।
रगडा नें नहिं देवै आग, वा मण भर उँचौ मानवी॥

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