रविवार, 16 अक्तूबर 2011

सार्थक जीवन





प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से जीवन को सार्थक बनाना चाहता है। यह बात अलग है कि उसका जो भी तरीका है, उससे जीवन सार्थक होता है या नहीं?

प्रायः बहिर्मुख-मानव भोग-उपभोग की विपुलता में, ऐन्द्रियिक विषयों के सेवन में ही मानव-जीवन की सार्थकता देखता है। किन्तु अन्तर्मुख मानव इन भोगोपभोग में जीवन का दुरूपयोग देखता है और उदारता, दान, दया, परोपकार आदि उदात्त भावों के सेवन में जीवन का सदुपयोग अनुभव करता है।
वस्तुतः मनुष्य जीवन की सार्थकता अपने जीवन को सु-संस्कृत, परिष्कृत, विशुद्ध और परिमार्जित करने में है। मानव जीवन की सार्थकता-सफलता जीवन मूल्यों को उन्नत और उत्तम बनाने में है। इन्ही प्रयत्नो की परम्परा में मन वचन और काया से ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना ही प्रमुख है।

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