शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

नीर क्षीर विवेक अर्थात् सम्यक् भेद

कुछ लोग कहते है  कि हमें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। किसी को भला, किसी को बुरा कहना राग-द्वेष है। सही भी है किसी की निंदा करना बुरा है। किन्तु, भले और बुरे में सम्यक भेद करना उससे भी कहीं अधिक उत्तम है।  भला-बुरा, हित-अहित और सत्यासत्य का विवेक रखकर,  बुरा अहितकारी और असत्य का त्याग करना। भला, हितकारी और सत्य का आदर करना तो एक आवश्यक गुण ही है। जो जैसा है, उसे वैसा ही, बिना किसी अतिश्योक्ति के निरूपित करना, कहीं से भी बुरा कर्म नहीं है।

एक व्यापारी को एक अपरिचित व्यक्ति के साथ लेन-देन व्यवहार करना था। रेफरन्स के लिए उसने, उसके परिचित और अपने एक मित्र को पूछा- “यह व्यक्ति कैसा है? इसके साथ लेन देन व्यवहार करनें में कोई हानि तो न होगी”

उस व्यापारी का मित्र सोचने लगा- मैं किसी के दोष क्यों बताऊँ? दोष दर्शाना तो निंदा है। मुझे तो उसकी प्रसंशा करनी चाहिए। इसप्रकार विचार करते हुए उस मित्र नें उस धूर्त की प्रशंसा ही कर दी। सच्चाई और ईमानदारी गुण, जो कि उसमें थे ही नहीं, उस धूर्त के लिए गढ दिए। मित्र की बात पर विश्वास करके व्यापारी ने उस धूर्त व्यक्ति के साथ व्यवहार कर दिया और कुछ ही समय में धूर्त सब कुछ समेट कर गायब हो गया। ठगा सा व्यापारी अपने मित्र के पास जाकर कहनें लगा- “मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, तुमनें मुझे बरबाद कर दिया। तुम्हारे द्वारा की गई धूर्त की अनावश्यक प्रसंशा नें मुझे तो डूबा ही दिया। तुमनें मुझ निरपराध को धोखा क्यों दिया? तुम तो मेरे मित्र-परिचित थे, तुमनें उसकी सत्य हक़ीकत छुपा कर झूठी प्रसंशा क्यों की?”

प्रशंसक कहने लगा- “मैं आपका शत्रु नहीं मित्र ही हूँ, और सज्जन भी हूँ। कोई भी भला व्यक्ति, किसी के दोष नहीं देखता, निंदा करना तो पाप है। मैनें तुम्हें हानि पहूँचाने के उद्देश्य से उसकी प्रशंसा नहीं की। बल्कि, यह सोचकर कि 'सज्जन व्यक्ति सभी में गुण ही देखता है', -मैने तत्काल प्रशंसा की”

“तो क्या उसमें ईमानदारी और सच्चाई के गुण थे?”

-“हाँ, थे न! वह प्रथम ईमानदारी प्रदर्शीत करके ही तो अपनी प्रतिष्ठा जमाता था। वह  सच्चाई व ईमानदारी से साख जमा कर प्रभावशाली व्यवहार से रहा करता था। धौखा तो मात्र उसने अन्तिम दिन ही दिया जबकि लम्बी अवधी तक वह नैतिक ही बना रहा। अधिकाल गुणों की उपेक्षा करना और थोड़े से दोषों को दिखाकर निंदा करना तो पाप है। भला मैं ऐसा पाप क्यों करूँ?” -उसने सफाई दी।

-“वाह! भाई वाह!, तुम्हारा चिंतन और गुणग्राहकता कमाल की है। तुम्हारी इस सज्ज्ननता नें, मेरी तो लुटिया ही डुबो दी। तुम्हारी गुणग्राहकता तो, उस ठग की सहयोगी ही बन गई। उसकी ईमानदारी और सच्चाई तो प्रदर्शन मात्र थी, केवल धूर्तता के लिए ही थी। भीतर तो बेईमानी ही छुपी थी। मैने आज यह समझा कि धूर्तो से भी तुम्हारे जैसे गुणग्राहक तो अधिक खतरनाक होते है”। - व्यापारी अपने भाग्य को कोसता हुआ चला गया।

कोई वैद्य या डॉक्टर यदि रोगी में रोग लक्षणों को उजागर न करे, या फिर, रोग को उजागर करना बुरा माने अथवा ऐसा करने को सेहत की श्रेष्ठता का बखान माने। अथवा फिर सेहत और रोग के लक्षणों को सम्भाव से समान मानकर उनका विश्लेषण ही न करे, तो निदान कैसे होगा? और अन्ततः वह रोग कारकों से बचने का परामर्श न दे। कुपथ्य से परहेज का निर्देश न करे। उपचार हेतू कड़वी दवा न दे तो रोगी का रोग से पिंड छूटेगा कैसे? ऐसा करता हुआ डॉक्टर कर्तव्यनिष्ट सज्जन या मौत का सौदागर?

कोई भी समझदार कांटों को फूल नहीं कहता, विष को अमृत समझकर ग्रहण नहीं करता। गोबर और हलवे के प्रति समभाव रखकर कौन समाचरण करेगा? छोटा बालक यदि गोद में मल विसर्जन कर कपडे खराब कर दे तो कहना ही पडता है कि ‘उसने गंदा कर दिया’। न कि यह कहेंगे ‘उसने अच्छा किया’। इस प्रकार बुरा कहना, बच्चे के प्रति द्वेष नहीं है। बुरे को बुरा कहना सम्यक् आचरण है।

संसार में अनेक मत-मतान्तर है। उसमें से जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है। विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोडना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है।

भले बुरे में सम्यक् विभाजन करके, बुरे को त्यागना और भले को अपनाना ही नीर क्षीर विवेक है।

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