रविवार, 19 दिसंबर 2010

धर्म का प्रभाव

एक व्यक्ति ने साधक से पूछा “ क्या कारण है कि आज धर्म का असर नहिं होता?”
साधक बोले- यहाँ से दिल्ली कितनी दूर है?, उसने कहा- दो सौ माईल।
“तुम जानते हो?” हां मै जानता हूँ।
क्या तुम अभी दिल्ली पहूँच गये?
पहूँचा कैसे?,अभी तो यहाँ चलूंगा तब पहुँचूंगा।
साधक बोले यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, दिल्ली तुम जानते हो, पर जब तक तुम उस और प्रस्थान नहिं करोगे तब तक दिल्ली नहिं पहुँच सकोगे। यही बात धर्म के लिये है। लोग धर्म को जानते है, पर जब तक उसके नियमों पर नहिं चलेंगे, उस और गति नहिं करेंगे, धर्म पा नहिं सकेंगे, अंगीकार किये बिना धर्म का असर कैसे होगा?
धर्म का प्रभाव नहिं पडता।
शिष्य गुरु के पास आकर बोला, गुरुजी हमेशा लोग प्रश्न करते है कि धर्म का असर क्यों नहिं होता,मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है।
गुरु समयज्ञ थे,बोले- वत्स! जाओ, एक घडा शराब ले आओ।
शिष्य शराब का नाम सुनते ही आवाक् रह गया। गुरू और शराब! वह सोचता ही रह गया। गुरू ने कहा सोचते क्या हो? जाओ एक घडा शराब ले आओ। वह गया और एक छलाछल भरा शराब का घडा ले आया। गुरु के समक्ष रख बोला-“आज्ञा का पालन कर लिया”
गुरु बोले – “यह सारी शराब पी लो” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शिघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उतारना।
शिष्य ने वही किया, शराब मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते देखते घडा खाली हो गया। आकर कहा- “गुरुदेव घडा खाली हो गया”
“तुझे नशा आया या नहिं?” पूछा गुरु ने।
गुरुदेव! नशा तो बिल्कुल नहिं आया।
अरे शराब का पूरा घडा खाली कर गये और नशा नहिं चढा?
“गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूंद भी नहिं गई फ़िर नशा कैसे चढता”
बस फिर धर्म को भी उपर उपर से जान लेते हो, गले के नीचे तो उतरता ही नहिं, व्यवहार में आता नहिं तो प्रभाव कैसे पडेगा।पतन सहज ही हो जाता है, उत्थान बडा दुष्कर।, दोषयुक्त कर्म प्रयोग सहजता से हो जाता है,किन्तु सत्कर्म के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता होती है।पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती ही है। जिस प्रकार वस्त्र सहजता से फट तो सकता है पर वह सहजता से सिल नहिं सकता। बस उसी प्रकार हमारे दैनदिनी आवश्यकताओं में दूषित कार्य संयोग स्वतः सम्भव है, व उस कारण अधोपतन सहज ही हो जाता है, लेकिन चरित्र उत्थान व गुण निर्माण के लिये दृढ पुरुषार्थ की आवश्यकता रहती है।

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