रविवार, 19 दिसंबर 2010

अहंकार के सु्ख़ दुख़

बचपन में एक चुटकला सुना था, लोग रेल यात्रा कर रहे थे। एक व्यक्ति खडा हुआ और खिडकी खोलदी, थोडी ही देरमें दूसरा उठा और उसने खिडकी बंद कर दी। पहले को यह बंद करना नागवार गुजरा और उठ कर पुनः खोलदी।एक बंद करता दूसरा खोल देता। नाटक शुरु हो गया। यात्रियों का मनोरंजन हो रहा था लेकिन अंततः सभी तंग आगये। टी टी को बुलाया गया, टी टी ने पुछा, महाशय ! यह क्या कर रहे हो? क्यों बार बार खोल-बंद कर रहे हो? पहला यात्री बोला क्यों न खोलूं मैं गर्मी से परेशान हूं खिडकी खुली ही रहनी चाहिए। टी टी ने दूसरे यात्री को कहा भाई आपको क्या आपत्ति है, अगर खिडकी खुली रहे। उस दूसरे यात्री ने कहा मुझे ठंड लग रही है, मुझे ठंड सहन नहिं होती। टी टी बिचारा परेशान, एक को गर्मी लग रही है तो दूसरे को ठंड। टी टी यह सोचकर खिडकी के पास गयाकि कोई मध्यमार्ग निकल आए,उसने देखा और मुस्करा दिया। खिडकी में शीशा ही नहिं था। मात्र फ़्रेम थी। वहबोला कैसी गर्मी या कैसी ठंडी? यहां तो शीशा ही गायब है, आप दोनो तो मात्र फ़्रेम को ही उपर नीचे कर रहे हो। दोनोंयात्री न तो गर्मी और न ही ठंडी से परेशान नहिं थे। बल्कि वे परेशान थे तो मात्र अपने अहंकार से।
अधिकाँश कलह इसलिये होते है कि अहंकार को चोट पहुँचती है। आदमी को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचानेमें आता है और सबसे ज्यादा क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है। जो दूसरो के अहंकार को चोट पहुँचानेमें सफ़ल होता है वह मान लेता है वह कुछ विशेष बन गया है। अधिकांश लडाइयों के पिछे कारण एक छोटा सा अहं ही होता है।

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