रविवार, 19 दिसंबर 2010

विश्वास का द्वंद्व

यात्री पैदल रवाना हुआ, अंधेरी रात का समय, हाथ में एक छोटी सी टॉर्च। मन में विकल्प उठा, मुझे पांच मील जाना है,और इस टॉर्च की रोशनी तो मात्र पांच छः फ़ुट ही पडती है। दूरी पांच मील लम्बी और प्रकाश की दूरी-सीमा अतिन्यून। कैसे जा पाऊंगा? न तो पूरा मार्ग ही प्रकाशमान हो रहा है न गंतव्य ही नजर आ रहा है। वह तर्क से विचलित हुआ, और पुनः घर में लौट आया। पिता ने पुछा क्यों लौट आये? उसने अपने तर्क दिए - "मैं मार्ग ही पूरा नहिं देख पा रहा, मात्र छः फ़ुट प्रकाश के साधन से पांच मील यात्रा कैसे सम्भव है। बिना स्थल को देखे कैसे निर्धारित करूँ गंतव्य का अस्तित्व है या नहिं।" पिता ने सर पीट लिया……

अल्प ज्ञान के प्रकाश में हमारे तर्क भी अल्पज्ञ होते है, वे अनंत ज्ञान को प्रकाशमान नहिं कर सकते। यदि हमारी दृष्टि ही सीमित है तो तत्व का अस्तित्व होते हुए भी हम देख नहिं पाते।

1 टिप्पणी:

  1. पिता ने सर पीट लिया.........
    अपने कर्मों पर ........ जो फल के रूप में सामने था.....

    मुर्ख व्यक्ति तो रामजी सोचने की शक्ति भी ज्यादा देते हैं.

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