रविवार, 19 दिसंबर 2010

आजीविका गुणधर्म मुक्तक

आजीविका कर्म भी धर्म-प्रेरित चरित्र युक्त करना चाहिए।
जीवन निर्वाह के साथ साथ जीवन निर्माण भी करना चाहिए।
परिवार का निर्वाह गृहस्वामी बनकर नहिं बल्कि गृहन्यासी (ट्रस्टी) बनकर निस्पृह भाव से करना चाहिए।
सत्कर्म से प्रतिष्ठा अर्जित करें व सद्चरित्र से विश्वस्त बनें।
कथनी व करनी में समन्वय करें।
कदैया (परदोषदर्शी) नहिं, सदैया (परगुणदर्शी) बने।
सद्गुण अपनानें में स्वार्थी बनें, आपका चरित्र स्वतः परोपकारी बन जायेगा।
इन्द्रिय विषयों व भावनात्मक आवेगों में संयम बरतें।
उपकारी के प्रति कृतज्ञ भाव और अपकारी के प्रति समता भाव रखें।
भोग-उपभोग को मर्यादित करके, संतोष चिंतन में उतरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए।
आय से अधिक खर्च करने वाला अन्ततः पछताता है।
कर्ज़ लेकर दिखावा करना, शान्ती बेच कर संताप खरीदना है।
प्रत्येक कार्य में लाभ हानि का विचार अवश्य करना चाहिए, फिर चाहे कार्य ‘वचन व्यवहार’ मात्र ही क्यों न हो।
आजीविका-कार्य में जो साधारण सा झूठ व साधारण सा रोष विवशता से प्रयोग करना पडे, पश्चाताप चिंतन कर लेना चाहिए।
राज्य विधान विरुद्ध कार्य (करचोरी, भ्रष्टाचार आदि) नहिं करना चाहिए। त्रृटिवश हो जाय तब भी ग्लानी भाव महसुस करना चाहिए।

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