मंगलवार, 16 नवंबर 2010

भोग

हानि न विष से हो सकी, जब तक किया न पान ।
पर क्रोध के उदय मात्र से, भ्रष्ट हो गया ज्ञान ॥1॥



सुलग रहा संसार यह, जैसे वन की आग ।
फ़िर भी मनुज लगा रहा?, इच्छओं के बाग ॥2॥



साझा-निधि जग मानकर, यथा योग्य ही भोग ।
परिग्रह परिमाण कर, जीवन एक सुयोग ॥3॥

1 टिप्पणी:

  1. सुलग रहा संसार यह, जैसे वन की आग ।
    फ़िर भी मनुज लगा रहा?, इच्छओं के बाग ॥2॥

    एक आस की डोर बंधी है जो टूटती नहीं है

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