रविवार, 2 अक्तूबर 2011

सापेक्षदृष्टि : अनेकान्तवाद


दार्थ (द्रव्य और शब्दार्थ दोनो सन्दर्भ में) अनेक गुण-धर्म वाले होते है। वस्तु अनेक गुण-स्वभाव वाली होती है तो शब्द भी अनेक अर्थ वाले होते है। कथन का आशय अथवा अभिप्रायः व्यक्त करने के लिए अपेक्षा भिन्न भिन्न होती है। प्रत्येक कथन किसी न किसी अपेक्षा से किया जाता है। कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु के विषय में अभिप्रायः व्यक्त करता है तो वह उस वस्तु के किसी एक अंश को लक्ष्य करके कहता है। उस समय वस्तु के अन्य गुण उपेक्षित रह जाते है। अनेकांत, भिन्न भिन्न अपेक्षा (दृष्टिकोण) को देखकर, पदार्थ का सही स्वरूप समझने का प्रयास करता है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले विपरित धर्म (गुण-स्वभाव) भी एक ही पदार्थ में विभिन्न अपेक्षाओं से उचित होते है। इस प्रकार अनेकांतवाद एक वस्तु में अनेक परस्पर विरोधी अविरोधी गुण-धर्मों के सत्यांश को स्वीकार करना बतलाता है।

एक गांव में जन्मजात छः अन्धे रहते थे। एक बार गांव में पहली बार हाथी आया। अंधो नें हाथी को देखने की इच्छा जतायी। उनके एक अन्य मित्र की सहायता से वे हाथी के पास पहुँचे। सभी अंधे स्पर्श से हाथी को महसुस करने लगे। वापस आकर वे चर्चा करने लगे कि हाथी कैसा होता है। पहले अंधे ने कहा हाथी अजगर जैसा होता है। दूसरे नें कहा नहीं, हाथी भाले जैसा होता है। तीसरा बोला हाथी स्तम्भ के समान होता है। चौथे नें अपना निष्कर्ष दिया हाथी पंखे समान होता है। पांचवे ने अपना अभिप्राय बताया कि हाथी दीवार जैसा होता है। छठा ने विचार व्यक्त किए कि हाथी तो रस्से समान ही होता है। अपने अनुभव के आधार पर अड़े रहते हुए, अपने अभिप्राय को ही सही बताने लगे। और आपस में बहस करने लगे। उनके मित्र नें उन्हें बहस करते देख कहा कि तुम सभी गलत हो, व्यथा बहस कर रहे हो। अंधो को विश्वास नहीं हुआ कि उनका अनुभव भी गलत हो सकता है। 

पास से ही एक दृष्टिवान गुजर रहा था। वह अंधो की बहस और मित्र का निष्कर्ष सुनकर निकट आया और उस मित्र से कहने लगा, यह छहो सही है, एक भी गलत नहीं।

उन्होंने जो देखा-महसुस किया वर्णन किया है, जरा सोचो सूंढ की अपेक्षा से हाथी अजगर जैसा ही प्रतीत होता है। दांत से हाथी भाले सम महसुस होगा। पांव से खंबे समान तो कान से पंखा ही अनुभव में आएगा। पेट स्पर्श करने वाले का कथन भी सही है कि वह दीवार जैसा लगता है। और पूँछ की अपेक्षा से रस्से के समान महसुस होगा। यदि सभी अभिप्रायों का समन्वय कर दिया जाय तो हाथी का आकार उभर सकता है। जैसा कि सच में हाथी होता है। किन्तु किसी एक अभिप्रायः को ही सही मानने पर वह दृष्टिकोण एकांत होकर मिथ्या होगा। और सभी दृष्टिकोण का सम्यक विवेचन का निष्कर्ष ही अन्तिम सत्य होगा।

यथार्थ में, हर दृष्टिकोण किसी न किसी अपेक्षा के आधार से होता है।अपेक्षा समझ आने पर दृष्टिकोण का तात्पर्य समझ आता है।दृष्टिकोण का अभिप्रायः समझ आने पर सत्यांश भी परिशुद्ध बनता है।परिशुद्ध अभिप्रायों के आधार पर परिपूर्ण सत्य ज्ञात हो सकता है।प्रत्येक वस्तु के पूर्ण-सत्य को जानने के लिए सापेक्षवाद चाहिए, अर्थात् अनेकांत दृष्टि चाहिए।इसी पद्धति को सम्यक् अनुशीलन कहेंगे।

दो मित्र अलग अलग दिशा से आते है और पहली बार एक मूर्ती को अपने बीच देखते है। पहला मित्र कहता है यह पुरूष की प्रतिमा है जबकि दूसरा मित्र कहता है नहीं यह स्त्री का बिंब है। दोनो में तकरार होती है। पहला कहे पुरूष है दूसरा कहे स्त्री है। पास से गुजर रहे राहगीर नें कहा सिक्के का दूसरा पहलू भी देखो। मित्र समझ गए, उन्होंने स्थान बदल दिए। अब पहले वाला कहता है हां यह स्त्री भी है। और दूसरा कहता है सही बात है यह पुरूष भी है।

वस्तुतः किसी कलाकार नें वह प्रतिमा इस तरह ही बनाई थी कि वह एक दिशा से पुरूष आकृति में तो दूसरी दिशा से स्त्री आकार में थी।

यहां हम यह नहीं कह सकते कि दोनो ही सत्य थे। बस दोनो की बात परस्पर विरूद्ध होते हुए भी उसमें सत्य का अंश था। तो पूर्ण सत्य क्या था? पूर्ण सत्य वही था, जिस अभिप्रायः से कलाकार ने बनाया था। अर्थात्,वह प्रतिमा एक तरफ स्त्री और दूसरी तरफ पुरूष था, यही बात पूर्ण सत्य थी।

एक अपेक्षा से कथन करते समय अन्य अपेक्षाएँ अव्यक्त रहती है, उन गौण हुई अपेक्षाओं का निषेध करना मिथ्या हो जाता है। इस प्रकार सापेक्ष वचन सत्य होता है, किन्तु निरपेक्ष वचन मिथ्या होते है। अपेक्षा-भेद से वस्तु का स्वरूप समझना सम्यक् ज्ञान है। सर्वथा एकांतवादी बन जाना मिथ्यात्व है।

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