सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

आहार आवास और आवरण की उछ्रंखलता


मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएँ है, आहार आवास और आवरण (वस्त्र)। और इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये ही मानव प्रकृति का दोहन करता है। जब तक वह इन जरूरतों तक सीमित उपभोग, संयमपूर्वक करता है तब तक प्रकृति उसकी सहयोगी रहती है। लेकिन जब वह आवश्यकताओं का अतिक्रमण करने लगता है, उपयोग कम और वेस्ट ज्यादा करने लगता है, तृष्णाधीन होकर संग्रह करके वस्तुओं को अनावश्यक सडन-गलन में झोंक देता है। संयम और अनुशासन को भूल, अनियंत्रित और स्वछंद भोग-उपभोग करता है। तब प्रकृति अपना सहयोग गुण त्याग देती है। और मानव की स्वयं की प्रकृति, विकृति में रूपांतर हो जाती है।

मनुष्य सर्वाधिक हिंसा और प्रकृति का विनाश अपनी आहार जरूरतों के लिये करता है। और अपने आहार-चुनाव में ही उसे संयम और अनुशासन की आवश्यकता है।

दुखद पहलू यह है कि कथित प्रगतिशील, इन तीनों (आहार आवास और आवरणमें स्वतंत्रता-स्वच्छंदता के पक्षधर होते है। और स्वांत संयम के घोर विरोधी। वे मानवीय तृष्णा की अगनज्वाला को प्रदिप्त रखने का कार्य करते है। मेरी नजर में वे कांईया प्रकृति-द्रोही हैं।

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