मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

सम्यकत्व के लूटेरे

एक विशाल नगर में हजारों भीख मांगने वाले थे। अभावों में भीख मांगकर आजिविका चलाना उनका पेशा था। उनमें कुछ अन्धे भी थे। उस नगर में एक ठग आया और भिखमंगो में मिल गया। दो तीन दिन में ही उसने जान लिया कि उन भिखारियों में अंधे भिखारी अधिक समृद्ध थे। अन्धे होने से दयालु लोग उन्हे विशेष देते थे। उनका धन देखकर ठग ललचाया। वह अंधो के पास पहुंच कर कहने लगा-“सूरदास महाराज ! धन्य भाग मेरे जो आप मुझे मिल गये। मै आप जैसे महात्मा की खोज में था ! गुरूवर आप तो साक्षात भगवान हो। मैं आप की सेवा करना चाहता हूँ ! लिजिये भोजन ग्रहण किजिए और मुझे आशिर्वाद दिजिये।“
अन्धे को तो जैसे मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भिखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो को अपने विश्वास में ले लिया। और अनुकूल समय देखकर उस भक्त नें अंध सभा को कहा-“ महात्मा मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की सेवा का लाभ लेना है। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये।सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला- “महात्माओं आगे भयंकर वनखण्ड है। जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव हो सकता है, आप अपनें अपने धन को सम्हालें”। अंध-समुह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें – “भक्त ! हमें तुम पर पुरा भरोसा है, तुम ही इसे अपने पास सुरक्षित रखो”,कहकर नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग नें इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने  सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो विश्वास न करना और ये पत्थर मार भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे राहगीर सज्जन ने इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पुछा –“सुरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर उन्मार्ग में क्यों भटक रहे हो”? बस सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी और आपस में अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
दृढ दर्शन के अभाव वाली श्रद्धा को, सेवा परोपकार सरलता का स्वांग रच ठगने वाले लूटेरों से बचाना अति कठिन है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारी आस्था, अंधो के समान है। ठग उस आस्था का लूटेरा है जो हमें सरल-जीवन, सरल धर्म पालन, का प्रलोभन देकर उस रही सही आस्था को लूट्नें में सफल होता है। और हमें उन्मार्ग में चढा देता है।

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