शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

पतंग की नियति : स्वछंदता का परिणाम


तंग, उँचा आसमान छूने के लिये अधीरदूसरी पतंगो को मनमौज से झूमती इठलाती देखकर बेताब। किन्तु एक अनुशासन की डोर से बंधी हुईसधे आधार से उडती-लहराती, फ़िर भी परेशान। आसमान तो अभी और शेष हैशीतल पवन के होते भी, अन्य पतंगो का नृत्य देख उपजीर्ष्या, उसे झुलसा रही थी। श्रेय की अदम्य लालसा और दूसरो से उँचाई पाने की महत्वाकांक्षा ने उसे बेकरार कर रखा था। स्वयं को तर्क देती, हाँ! प्रतिस्पृदा उन्नति के लिये आवश्यक है

किन्तु,फ्फ!! यह डोर बंधन!! डोर उसकी स्वतंत्रता में बाधक थी। अपनी महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिए, वह दूसरी पतंगो की डोर से संघर्ष करने लगी। इस घर्षण में उसे भी अतीव आनंद आने लगा। अब तो वह डोर से मुक्ति चाहती थी । अनंत आकाश में स्वच्छंद विचरण करना चाहती थी।

निरंतर घर्षण से डोर कटते ही, वह स्वतंत्र हो गई। सूत्रभंग के झटके ने उसे उंचाई की ओर धकेला, वह प्रसन्न हो गईकिन्तु यह क्या? वह उँचाई क्षण मात्र की थी। अब स्वतः उपर उठने के प्रयत्न विफल हो रहे थे। निराधार डोलती हुई नीचे गिर रही थी। सांसे हलक में अटक गई थी, नीचे गहरा गर्त, बडा डरावना भासित हो रहा था। उसे डोर को पुनः पाने की इच्छा जगी, किन्तु देर हो चुकी थी, डोर उसकी दृष्टि से ओझल हो चुकी थी। अन्तत: धरती पर गिर कर धूल धूसरित हो गई, पतंग

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