सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

दृष्टि परिक्षण


त्य पाने का मार्ग अति कठिन है। सत्यार्थी अगर सत्य पाने के लिए कटिबद्ध है, तो उसे बहुत सा त्याग चाहिए। और अटूट सावधानी भी। कईं तरह के मोह उसे मार्ग चलित कर सकते है। उसके स्वयं के दृष्टिकोण भी उसके सत्य पाने में बाधक हो सकते है।

  • मताग्रह न रखें

सत्य खोजी को चाहिए, चाहे कैसे भी उसके दृढ और स्थापित पूर्वाग्रह हो। चाहे वे कितने भी यथार्थ प्रतीत होते हो। जिस समय उसका चिंतन सत्य की शोध में सलग्न हो, उस समय मात्र के लिए तो उसे अपने पूर्वाग्रह या कदाग्रह को तत्क्षण त्याग देना चाहिए। अन्यथा वे पूर्वाग्रह, सत्य को बाधित करते रहेंगे।

सोचें कि मेरा चिंतन ,मेरी धारणाओं, मेरे आग्रहों से प्रभावित तो नहीं हो रहा? कभी कभी तो हमारी स्वयं की 'मौलिक विचारशीलता' पर ही अहं उत्पन्न हो जाता है। और अहं, यथार्थ जानने के बाद भी स्वयं में, विचार परिवर्तन के अवसर को अवरोधित करता है। सोचें कि कहीं मैं अपनी ही वैचारिकता के मोहजाल में, स्वच्छंद चिंतन में तो नहीं बह रहा? कभी कभी तो अजानते ही हमारे विश्लेषण मताग्रह के अधीन हो जाते है। प्रायः ऐसी स्थिति हमें, सत्य तथ्य से भटका देती है।

  • पक्षपात से बचें

प्रायः हमारी वैचारिकता पर किसी न किसी विचारधारा का प्रभाव होता है। तथ्यों की परीक्षा-समीक्षा करते हुए, अनायास ही हमारा पलड़ा सत्य विरूद्ध  झुक सकता है। और अक्सर हम सत्य के साथ 'वैचारिक पक्षपात' कर बैठते है। इस तरह के पक्षपात के प्रति पूर्ण सावधानी जरूरी है। पूर्व स्थापित निष्कर्षों के प्रति निर्ममता का दृढ भाव चाहिए। सम्यक दृष्टि से निरपेक्ष ध्येय आवश्यक है।

  • सत्य के प्रति श्रद्धा

"यह निश्चित है कि कोई एक 'परम सत्य' अवश्य है। और सत्य 'एक' ही है। सत्य को जानना समझना और स्वीकार करना हमारे लिए नितांत ही आवश्यक है।" सत्य पर इस प्रकार की अटल श्रद्धा होना जरूरी है। सत्य के प्रति यही आस्था, सत्य जानने का दृढ मनोबल प्रदान करती है। उसी विश्वास के आधार पर हम अथक परिश्रम पूर्व सत्य मार्ग पर डटे रह सकते है। अन्यथा जरा सी प्रतिकूलता, सत्य संशोधन को विराम दे देती है।

  • परीक्षक बनें।

परीक्षा करें कि विचार, तर्कसंगत-सुसंगत है अथवा नहीं। वे न्यायोचित है या नहीं। भिन्न दृष्टिकोण होने कारण हम प्रथम दृष्टि में ही विपरित विश्लेषण पर पहुँच जाते है। जैसे सिक्के के दो पहलू होते है। दूसरे पहलू पर भी विचार जरूरी है। जल्द निर्णय का प्रलोभन त्याग कर, कम से कम एक बार तो विपरित दृष्टिकोण से चिंतन करना ही चाहिए। परिक्षक से सदैव तटस्थता की अपेक्षा की जाती है। सत्य सर्वेक्षण में तटस्थ दृष्टि तो आवश्यक ही है।

  • भेद-विज्ञान को समझें (अनेकांतवाद)

जो वस्तु जैसी है, उसे यथारूप में ही मनन करें और उसे प्रस्तुत भी उसी यथार्थ रूप में करें। न उसका कम आंकलन करें न उसमें अतिश्योक्ति करें न अपवाद मार्ग का अनुसरण करें। तथ्यों का नीर-क्षीर विवेक करें। उसकी सार्थक समीक्षा करते हुए नीर-क्षीर विभाजन करें। और हेय, ज्ञेय, उपादेय के अनुरूप व्यवहार करें। क्योंकि जगत की सारी सूचनाएँ, हेय, ज्ञेय और उपादेय के अनुसार व्यवहार में लानी चाहिए। अर्थात् ‘हेय’ जो छोड़ने लायक है उसे छोड़ें। ‘ज्ञेय’ जो मात्र जानने लायक है उसे जाने। और ‘उपादेय’ जो अपनाने लायक है उसे अपनाएँ।

वस्तुएँ, कथन आदि को समझने के लिए, अनेकांत जैसा एक अभिन्न सिद्धांत हमें उपलब्ध है। संसार में अनेक विचारधाराएं प्रचलित है। वादी अपनी एकांत दृष्टि से वस्तु को देखते है। इससे वे वस्तु के एक अंश को ही व्यक्त करते है। प्रत्येक वस्तु को विभिन्न दृष्टियों, विभिन्न अपेक्षाओं से पूर्णरूपेण समझने के लिए अनेकांत दृष्टि चाहिए। अनेकांतवाद के नय, निक्षेप, प्रमाण और स्याद्वाद अंग है। इनके भेद-विज्ञान से सत्य का यथार्थ निरूपण सम्भव है।

“समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है। भाषा अनेक शब्दों से बनती है। एक ही शब्द प्रयोजन एवं प्रसंग के अनुसार, अनेक अर्थों में प्रयुक्त होते है। हर कथन किसी अभिप्रायः से किया जाता है, अभिप्रायः इस बात से स्पष्ट होता है कि कथन किस अपेक्षा से किया गया है। कथ्यार्थ या वाच्यार्थ के निर्धारण हेतु, अनेकांत एक प्रमुख पद्धति है”। 

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